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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बहुर चेला चांटा सोई भई फौज अरु चेली सोई हुई स्त्री। ऐसी विभूति सहित राजा सादृश्य होता संता भी आपकौ दिगम्बर मानै है | सोहे दिगम्बर हम कैसे जाने मानै एक दिगम्बर नाहि हुंडा सर्पनी पंचमकालकी विधातानै एक मूर्ति ही गड़ी है, कै मानूं सात व्यसनकी मूरति ही है कै मानूं पापका पहार ही है । कै मानूं जगतके डुबोवानै पत्थरकी नाव है। बहु २ कैसा है. कलिकालके गुरु सो आहारके अर्थ दिनप्रति नगृ व्रत आदरै । अरु स्त्रीका लक्षन देख वांका मिसकर स्त्रीयांका स्पर्श करै । स्त्रीका मुख कमलनै भंवर साढस्य होइ वाका अवलोकन करै । पाछै अत्यंत मग्न होय आपनै कृत्य कृत्य मानै । सो या बात न्याय ही है। ऐसा तौ नाना प्रकारका गरिष्ट नित्य नवा भोजन मिल्या अरु नित्य नई स्त्री मिली तौ याका सुखकी कांई पूछनी । ऐसा सुख राजान भी दुर्लभ सो ऐसा सुखनै पाइ कौन पुरुष मगन न होइ ? होय ही होय । सो कैसी है वे स्त्री अरु कैसा है वाका खाविंद । सो स्त्रीका तौ अंतहकरन परनाम कैसी बनी। अरु पुरुष मोह मदिरा करि मूच्छित भया तातै ई अन्यायका मैठ वानै कौन समर्थ है ? कोई नाहीं । तीसू आचार्य कहै है हैं ई विपर्जय देखि मौन करि तिष्ठो याका न्याय विधाता ही करनैकं समर्थ है। अरु वहीं दंड देनेतुं समर्थ हैं हम नाही सो ऐसा गुरानै परलोक विषै भला. फलमू वोछै हैं सो वे कोइ करै हैं । जैसे कोई पुरुष वांझके पुत्रका आकाशके फूरलम्हं सेहरा गूंथ आप मुवा पाछै वाका अवलोकन किया चाहै हैं वा जस कीर्तिकू सुन्या चाहैं हैं तिहि साढस्यनवाका फल स्वरूप जानना बहुरि वे परस्पर प्रशंसा
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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