SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - प्रकार त्यारा वारंवार त्रैलोकमें जिनबिम्ब है। तिनकू नमस्कार होहु अरु भवभवमें इनहीका सरन होहु । याहीकी सेवा प्राप्ति होहु याकी सेवा विन एक समय भी मत जावो मोनें अनादि कालते संसार में भृमन करता भाग्य उदें काल लब्धिके जोगतें यह निध पाई सो दीरघ कालका दरिद्री चिन्तामन रतनतें पाय सुखी होय त्यों में श्री जिन धर्म पाय सुखी इवो सो अब मोक्ष होने पर्यंत यह जिन धर्म मेरा हृदामें सदैव अंतर रहित तिष्टो यह मेरी प्रार्थन श्री जिन बिम्ब पूर्न करो घनी कहा अर्जी करै दयालु पुरुष थोड़ी अर्जी किये बहुत मांगेगे । इति दर्शन संपूर्ण । आगे अपने इष्टदेवकू विनयपूर्वक नमस्कार कर सामायिकका स्वरूप कहे हैं। सो हे भव्य तू सुन । दोहा-सात भाव जुत वंदके तत्व प्रकाशन सार । वे गुरु मम हिरदे वसो भवदधि पार उतार ।। सो सामायिक नाम समभावका है । सामायिक कहो भावे समभाव कहो । भावे सुद्धोपयोग कहो भावे वीतराग भाव कहो । भावे निकषाय कहो ये सब एकार्थ हैं । सो यह कारन कार्यकी सिद्धि होनेके अर्थ बाह्यकी क्रिया साधन कारनभूत है । कारन विना कार्यकी सिद्ध नाहीं । तातें बाह्य कारनका संजोग अवश्य करना योग्य है । सो द्रव्य क्षेत्र काल भाव चार प्रकार है । द्रव्य तो श्रावक एक लंगोट तथा एक औछीस बड़ा पनाकी तीन हाथकी धोवती अरु एक मोरपिछका राखे बहुरि सीतकालमें सीतकी परीषह उघड़ा शरीर सों न सही जाय । एक स्वेत वस्तर इह नोटे सूतका तासू डील · ढांके यह उपरान्त परिग्रह राखे नाहीं चौकी बा पड़ाषा शुद्ध भूमपर बैठकर सामायिक करे अरु शुद्धक्षेत्र जामे कोलाहल शब्द न होय
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy