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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - आई । यह हलाहल विष सारसी आकुलताम्हासू कैसी भोगी जाई। अवार म्हाको आनंद रस कड़ि गयौ । फेर भी म्हाकै ज्ञाननंद रस की प्राप्ति होती कै नांही । हाय, हाय अवै म्है कांई करौ यौ म्हाको स्वभाव नाहीं छै, म्हाको स्वभाव तौ एक निराकुलित बाधारहित अतेन्द्री अनोपम सुरस पीवाकौ है। सोई म्हांनै प्राप्ति होई कैसै प्राप्त होइ । जैसे समुद्र वि मगन हुवा मच्छा वाह्य निकस्या न चाहै । अरु बाह्य निकसवानै असमर्थ होय । त्योंही मैं ज्ञान समुद्र विर्षे डूब फेर नाहीं निकस्या चाहूं हूं। एक ज्ञानरस होकौं पीवौ करौं आत्मीकरस विना और काईमें रस नाहीं सर्व जगकी सामग्री चेतन रस विना जड़त्व स्वभाव नै घट्या फीकी, जैसै लून बिना अलूनी रोटी फीकी, तीसू ऐसौ ज्ञानी पुरुष कौन है सो ज्ञानामृतनै छोड़ि उपादीक आकुलता सहित दुख आचरै, कदाचन आचरै । ऐसे शुद्धोपयोगी महामुन ज्ञानरसके लोभी अरु आत्मीक रसके स्वादी निजस्वभावतै छूटे हैं तव ऐसै झूरे हैं। वहुरि आगे और भी कहिए है मुनि ध्यान ही धरै हैं सो मानूं केवलीकी वा प्रतिमाजीकी होड़ ही करै हैं । कैसे होड़ करै हैं भगवानजी थांके प्रसादकरि म्है भी निजस्वरूपनै पाया है। सो अवै म्है निजस्वरूप को ही ध्यान करता । थाको ध्यान नहीं करा थांका ध्यान बीच म्हांका निजस्वरूपको ध्यान करता आनंद विशेष होय छै । म्हांकै अनुभव करि प्रतीति है । अरु आगममें आप भी ऐसौ ही उपदेश दियौ छै । रे भव्यजीवौ ! कुदेवानै पूजौ तातें अनंत संसारके विषै भ्रमोला अर नारकादिका दुख सहौला अरु म्हांनै पुजौ तातै स्वर्गादिक मंद क्लेशसहेला । अरु निजस्व
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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