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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।. २३३ AoNN ~vvvvvvvvvvviwwww नाश किया तासू मैं निर्विकल्प आनन्दमय जिन स्वरूपने वारंवार संभालता वा आदि करता स्वभावमें तिष्ट्रं हूं। यहां कोई कहे यह शरीर तुमारा तो नाहीं । परन्तु याके निमित्त कर इही मनुष्य पर्यायमें शुद्धोपयोगका सा धन भली भांति होय तासू याका यह उपगार जान्याकू पोषना उचित है । यामें टोटो नाहीं ताकू कहिये है हे भाई तू ऐसा कहा सो या बात हम भी जाने हैं मनुष्य पर्याय विषे सुद्धोपयोगका साधन अरु जानका साधन अरु वैरागकी बधवारी इत्यादि अनेक गुनाकी प्राप्ति होय है ऐसा अन्य पर्यायमें दुर्लभ है परन्तु अपना संयम गुन रहा अरु शरीर है तो भला ही है। म्हांके कोई जा शरीर सूं वैर नाहीं अरु न रहे छे तो अपना संयमादि निर्विघ्नपने राखना अरु शरीरका ममत्व अवश्य छोड़ना शरीरके वास्ते संयमादि गुन कदाच खोवना नाहीं। जैसे कोई पुरुष रतनका लोभी परदेश जो रतन दीपमें फूसकी झोंपड़ी. बनावे अरु उस झोंपड़ीमें रतन ल्याय ल्याय एकटा करे अरु जो उस झोंपड़ीके आग लागे तो वह विचक्षन पुरुष ऐसा विचार करे जो कोई इलाज कर अग्नि दुझावनी अरु रतन सहित झोंपड़ीकू राखनी जो यह झोंपड़ी रहसी तो फेर या झोंपड़ीके आसरे फेर भी रतन भेला कर सू । सो वह पुरुष झोंपड़ी बुझती जाने तो रतन राख बुझावे अरु कोई कारन ऐसा देखे जो रतन गया झोपड़ी रहे तो कदाच भी झोंपड़ी राखनेका उपाय न करे जो झोंपड़ीने वरवा देय अरु अपना सर्व रतन ले घर उठ आवे पांछे एक दोय रतनने बेंच अनेक तरहकी विभूतने भोगवे अनेक प्रकारके सुवर्न रूपामई मंदिर कराय महल वा हवेली वा
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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