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ज्ञामानन्द श्रावकाचार ।
भरया है । तातें अवगुन आवनै जांगां नाहीं। ऐसे सिद्ध परमेष्ठीकी महिमा वर्णन कर स्तुति करि । आगै सरखती कहिऐ जिनघानीताकी महिमा स्तुति करिये हैं। सो हे भव्य ! तूं सुन सो कैसी है जिनवानी जिनेन्द्रका हृदय स्रोई भया द्रह तहां थकी उत्पन्न भई है। वहां थकी आगै चली सो चल करि जिनेन्द्र मुखारविंदतै निकसी, सो निकसकरि गनधर देवांका कान वि जाय पड़ी। अरु पडिकरि का थकी आगै चलि गणधर देवांका मुखारबिंदतें निकसी। निकसिकरि आगाने चाल सुरत सिन्धुमें जाय प्राप्त भई । भावार्थ-या जिनवानी गंगा नदीकी उपमानै धरा है। वहुर कैसी है जिनेन्द्र देवकी वानी स्याद्वाद लक्षण करि अंकित है वा दया अमृत कारि भरी है । अर चन्द्रमा समान उज्वल है वा निर्मल है, जैसे जैसे चन्द्रमाकी चांदनी चन्द्रवसी कमलानै प्रफुल्लित करै है और सब जीवोंके आतापनै हरै है । तैसे ही जिनवानी भव्य जीव सोई भया कमल त्यानै प्रफुल्लित कौ है । वा आनंद उपजावै है, अरु भव आतापमै दूर करै है। बहुरि कैसी है सरस्वती जगत्की माता है सर्व जीवानै हितकारी है । परम पवित्र है । पुन कुवादी रूप हस्ती ताका विदारवाणै वा परिहार करवाने वादित्त रिद्धिका धारी महा मुनि सोई भया शार्दूल सिंह ताकी माता है। बहुरि कैसी हैं जिन प्रणीत बानी अज्ञान अंधकार विध्वंश करवानै जिनेन्द्र देव सूर्य ताकी किरन ही है। या ज्ञानामृतकी धार बरषावनेको मेघमाला है। इत्यादि अनेक महिमाने धरया है। ऐसी जिनवानी ताकै अर्थ म्हारा नमस्कार होहु । ईहां सरूपानुभवनका विचार मैंने किया है सो इस कार्यकी