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________________ २३८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । maroon परवस्तु छे आपना स्वभावरूप स्वयमेव परनवे छे काहूका राख्या है नाहीं भोला जीव भरम खाय छे तासों थे भरम बुद्धि छोड़ो अरु आपा परकी ठीक एकता करो । तासों अपनो हित सधे सोई करो । विचक्षन पुरुषांकी याही रीति छे एक आपना हितने ही चाहें । विना प्रयोजन एक पैंड भी धरे नाहीं अरु थें मोह सों ममत्व जे तो घनो करस्यो ते तो घनो दुख होसी जो जीव अनन्तवार अनन्त पर्यायमें न्यारा न्यारा माता पिता पाया, सो अब वे कहां गया अरु अनन्तवार ई जीवकी स्त्री पुत्र पुत्रीका संजोग भया सो वे कहां गया अरु पर्याय पर्यायमें भ्राताकुं आप माने अरु पर्याय सूं तनमय होय रहो या जाने जो विनासीक पर्याय स्वभाव छ । अरु म्हाको स्वरूप सास्वतो अविनासी छै ऐसो विचार उपजे नाहीं सो थांने दूषन काई नाहीं यो मोहको महांतम छे परतक्ष सांची वस्तु झूठी दीसे अरु झूठी वस्तुने साची देखे अरु जाको मोह गल गयो ऐसो भेद वेज्ञानी पुरुष छ । तेई पर्यायसं कैसे आयो माने अरु कैसे याकू सत्य जाने अरु कौनको चलायो चले कदाच भी न चले तासूं मेरे ज्ञान यथार्थ भया है अरु आपा 'पर ठीकता भई सो मो ठगवाने कौन समर्थ है। अनादि काल सो पर्याय पर्यायमें घनों ही ठगायो ताहीतें मव भवमें जन्म मरनका दुःख सहा तासूं थे अब नीका कर जानो थांको अरु म्हांको ऐते दिनको संबंध छो । सो अब पूरो हूवो सो थानें भी अब आतम काज करवों जोग छे जो मोह करनो उचित नाही तातै निज स्वरूप अपनो सास्वतो छे । त्याने सम्हालो तामें कोई तरहको खेद नाही अशा ही घटमें महां अमौलिक निधि है।
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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