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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कोड्या जातके वादिन बातें हैं अरु नृत्य होय है अरु नाटक होंय हैं अरु अनेक कला चतुराई वा हावभाव कटाक्ष करि देवांगना कोमल हैं । शरीर निर्मल सुगंधमई है अरु चन्द्रमाकी किरनसूं असंख्यात गुना निर्मल प्रकाशमई मुख है । बहुरि कैसी है देवांगना महा तीक्षन कोकला सारखा केट जिनका अरु मीठा मधुर वचन बोले हैं अरु तीक्षन मृग सारखा नेत्र है अरु चीता सारखी कट है अरु फटकमनी समान दंत अरु ऊगता सूर्य हथेली वा पग थली है बहुरि कैसी है देवांगना जैसे बारा वरसकी राजपुत्री सोभे तासूं असंख्यात गुना अतुलने लियां पर्यंत एकादस रूप रहे है । भावार्थ-यह तरुन वा वृद्धपनाने न प्राप्त होय बालदसा साढस्य ही रहे है बहुरि कैसी हैं देवांगना मानूं यह सर्व सुख बोयके पिन्ड ही है। सर्व गुनानके समूह हैं सर्व विद्याके ईश्वर हैं सर्व कला चतुराईकी अधपति है। सर्व लक्ष्मीके स्वामी हैं। अनेक सूर्यकी क्रांतिको जीते हैं। अनेक कामका निवास है शरीर जिनका बहुरि केसे हैं देव देवी देवता तो देवीनके मनकू हरे हैं अरु देवी देवनके मनकू हरे हैं हंसनीकी चालक जीतें हैं चाल जिनकी अनेक विक्रियामय है शरीर जिनका अनेक तरह सू नृत्य करें हैं अरु देव अनेक शरीर बनाया पुषत अनेक देवांगनासू अनेक भोग भोगवे हैं । अरु जुदे महान महासुगंधमई कोटक चन्द्रमा सास्य सातमई मनकू रंजाय मान करवावाले महादैदीप्यमान अनेक प्रकारके कल्पवृक्ष तिनके फूलन कर भूसित ऐसी सेज ऊपर देव तिष्ठं हैं । पीछे देवांगना अनेक आभूषन पहिरे जुदे जुदे महलनमें नाय हैं । पीछे दूर होते हस्त
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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