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ज्ञानानन्द श्रावकाचार | -
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लोहूका विकार है । तासूं अज्ञानी जीव कहें यह तो देवकी सक्ति उपजी है । इसी बुद्धि कर वाकू पजे पाछे पूजता पूनता ही पुत्र पुत्री मर ज य अरु कैई न पू तिनको जीवता देखिये है । तो भी अज्ञानी जीव वान देव ही माने और कहीं ए छादना कीलारोड़ी चाकी पनेड़ी दहेड़ी पथरवाड़ी गायकी वादनी दवात वही कुलदेवी चौथ गांज बीज अनन्त इत्यादिक धनी ही वस्तुने अनुराग कर पूजें हैं । अरु सती अउत पितर इत्यादिक कुदेवाका कहां ताई वर्नन करिये अब सर्व कुदेव तिनका सर्व पूजवांवाला तिनका कौन बुद्धिवान पंडित वर्नन कर सके एक सर्वज्ञ जानवाने ममर्थ छ । मो जा जीवने अज्ञान ताका बस कर वा लोभ दृष्टि कर कांई काई खोटा कार्ज करै और कौन कौन पर दीनता न भाषे अरु कौन कौन या मतमें मस्तक न धारे सो अवश्य नवावे ही नवावे सो यह मोहका महात्म है। अरु मोह कर अनादि कालको संसार विषं भ्रमे हैं । अरु नर्क निगोदादिकका दुख सहे है । त्या दुखको वर्नन करवां समर्थ श्री गनधर देव भी नाहीं । तातों श्री गुरु परमदयालु कहें हैं हे भाई हे पुत्र जो तू अपना हितने वाझं महा सुखी हूवा चाहे तो मिथ्यात्वका सेवन तन घनी कहवां कर काई विचक्षन पुरुष तो थोड़ामें ही समझ जाय अरु जे धीर पुरुष हैं त्यारने चाहे जितनो कहो वे एक भी न मांने सो यह न्याय ही है जैसी जीवकी होनहार होय तैसी ही बुद्धि उपनै । ऐसे संक्षेप मात्र कुदेवादिकका वर्नन किया आगे कुधर्मका वर्नन कहिये है। कुधर्म कोने कहिये जामें हिंसा झूठ चोरी वुशील परिग्रहकी वांक्षामें धर्मस्थामें और दुष्ट जीवं कू वैरयाकू सनम