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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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मेरे अनुभव है । ये दो गुन ही का मैं पिन्ड हूं । सो या दोय गुणाकी मेरे आज्ञाकर भी प्रतीत है । अरु अनुभवन कर प्रमान है । कैसो मैं या जानूं सर्वज्ञका वचन झूठा नाहीं। तातें तो आज्ञा प्रमान है अरु मैं या जानूं मेरे ताई मेरा अमूर्तीक आकार मोकू दीसता नाहीं तो आज्ञा प्रमान है परन्तु मैं अनुमान कर ऐसा प्रदेसनके आश्रय विना चैतन्य गुन किसके. आसरे होइ । प्रदेश विना गुन कदाच भी न होय । यह नेम है जैसे भौमिका विना. रूखादिक किसके आश्रय होंय त्यों ही प्रदेश विना गुन किसके आश्रय होय ऐसा विचार कर अनुभवनमें भी आवे है अरु आज्ञा कर प्रमान ह बहुरि प्रमान है । बहुरि कोई मेरे ताई आनकर झूठी कहे फलाना ग्रन्थमें या कही है। ये आगे तीन लोक प्रमान आत्म प्रदेशका श्रद्वान किया था मैं ऐसे निःसहाय जो आत्माका प्रदेश धर्म द्रव्यका प्रदेशा सों घाट है । तो मैं ऐसा विचारूं सामान्य शास्त्र सो विशेष शास्त्र बलवान है । सो ऐसा होयगा मेरे अनुभवनमें तो कोई निरधार होता नाहीं अरु विशेष ज्ञानी यहां दीसे नाहीं । तातै सर्वज्ञका वचन प्रमाण करू हूं। परंतु मेरे ताईं या कहे तूं जड़ अचेतन है वा मूर्तीक है। वा परिनमनते रहित है तो यामें किछू मानें नाहीं यह मेरे संदेह है। जासों ब्रह्मा विष्णु नारायन रुद्र कोड़ कोड़ आय कहैं । यामें याही जानों कि ये सब बावला भया है। के मोने डिगावा आया है। के मेरी परीक्षा लेहे मैं ऐसा मानूं । भावार्थ-यह जो ज्ञान परनति आपहीके होय है । सो जाकू जानें सोई सम्यकदृष्टि है । याकू जाने विना-मिथ्यादृष्टि है । और अनेक प्रकार गुनाका स्वरूप व