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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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पहिले प्रकाश भयो ते तौ पूर्व दिसा छे, अरु तेठी यह सूर्य है सो सून विना ऐसा प्रकाश होता नाहीं । त्यों त्यों सूर्य ऊंचा चढे है त्यों त्यों प्रकास निर्मल होता जाय है । कोई आइने जा कहे सूर्य दक्षिन दिसामें है अठीने सूर्य नाहीं तो कदाच मानें नाहीं औरनकुं बावला गिने कि प्रतक्ष राह सूर्यका प्रकास दीसे है । मैं याका कहा कैसे मानूं यह मेरे संदेह है । सूर्यका बिम्ब तो मेरे ताई निनर आवता नाहीं पन ई प्रकार सूर्यका अस्त होय है । सो नियमकर सूर्य आठा ही हैं ऐसी अब गाढ़ प्रतीत आवे है। बहुरि फेर सूर्यका बिम्ब संपूर्ण महातेज प्रतापने लियां देदीपमान प्रष्ट भया तब प्रकास भी संपूर्ण भया पदार्थ भी जैसा था जैसा प्रतिभासवा लागा तब पूंछना ताछना रहा नाहीं । निर्विकल्प होय चुक्या ऐसे दृष्टाके अनुसार दृष्टान्त जानना सोई कहिये है मिथ्यात अवस्थामें पुरुषने पूंछा तू चैतन्य है ज्ञानमई है तब वे कहें चैतन्य ज्ञान कहा कहावे का चैतन्य ज्ञानमई हूगो काई था शरीर में अरु मोमें क्या भेद है । शरीर है सोई मैं हूं वा सर्वज्ञका ये ये अस हूं वा छिन छिनमें उपजे विनसे है वा सून्य है। तो ऐसे ही मानें ऐसे होयगा मेरे ताई किछू खबर नाहीं यह हिरात्माका लक्षन है। बहुरि काई गुरुका उपदेश कर ऐसा श्रद्धान आवे जो मैं प्रगट ज्ञानमई आत्मा यह मेरा ज्ञानका प्रकाश प्रगट सबका देखन जाननहारा मैं ज्ञान विना ऐसा जानपना शरीरमें तो नाहीं। यह ज्ञानका प्रकास जहांसू अ या है। तहां ही आत्मा है ज्यों ज्यों ज्ञान प्रकास बधता जाय त्यों त्यों तत्वका जानपना निर्मल होय.