Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Moolchand Manager
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalay

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Page 269
________________ २६४ . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । इत्यादि अहन्तदेव अनेक गुन कर सोभित हैं । बहुरि आगे जिनवानीके अनुसार ऐसा जो जैन सिद्धान्त सर्व दोष कर रहित ता विषे सर्व जीगंका हितकारी उपदेस है । अरु तामें सर्वतत्वका निरूपन है। अरु ता विर्षे मोक्षमार्गका मोक्षस्वरूपका वर्नन है । अरु पूर्वापरि. दोष कर रहित है इत्यादि अनेक महिमां कर सोभित मिन सासन है। आगे निर्ग्रन्थ गुरुका स्वरूप कहिये है सो राजलक्ष्मीने छोड़ मोक्षके अर्थ दीक्षा धरी है। अरु अणिमा महिमा आदि दे रिद्धि जाके फुरी हैं । अरु मति श्रुति अवधि मनःपर्यय ज्ञान कर संयुक्त है । अरु महां दुद्धर तपकर संयुक्त है । अरु निःकषाय है दयालु है छयालीस दोष टाल आहार लेहे। अरु अठाइस मूल गुन ता विषं अतीचार भी न लगावे है ईर्या समितिने पालता थका साड़ा तीन हाथ धरती सोधता विहार करे। भावार्थ-काहू जीवने विरोधे नाहीं । भाषा समिति कर हित मित वचन बोले है । ताका वचन कर कोई जीव दुख न पावे ऐसे सर्व जीवाकी रक्षा विषं तत्पर है ऐसा सर्वोत्कृष्ट गुरु देव धर्म ताने छोड़ विचिक्षन पुरुष हैं ते कुदेवादिकने कैसे पूजे परतक्षही जग तके विषं जाकी हीनता देखिये है । जे जे जगतमें रागद्वेष आदि औगुन हैं ते ते सर्वसे हिंसा झूठ चोरी कुसील आरंभ परिग्रह आदि जे महां पाप ताकर ही स्वर्गादिकका सुखने पावे तो नर्कादिकका दुख कौन कर पावे सो तो देखिये नाहीं। और कहिये है देखो भाई जगतमें उत्कृष्ट उत्कृष्ट वस्तु थोरी है। सो प्रतक्ष देखिये है। हीरा मानिक पन्ना जगतमें थोड़ा है कंकर पत्थर बहुत है । बहुरि राजा पातशाह

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