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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
आदि महंत पुरुष थोड़ा है रंक आदि शूद्र पुरुष बहुत हैं । अरु धर्मात्मा पुरुष थोड़ा हैं पापी पुरुष बहुत हैं ऐसा ऐसा
अनादि निधन वस्तुका स्वभाव स्वयमेव बन्या है । ता स्वभाव मेंटना सक कोई नाहीं । तासों तीर्थंकर देव उत्कृष्ट हैं सो एक क्षेत्रमें एक कोई कालमें एक पाजे अरु कुदेवादिकका वृंद कहिये समूह वर्तमान कालमें बहुत पाजे । कैसा कैसा कुदेवाने पूजे छ । परस्पर रागी द्वेषी वे तो कहे मोनें पूनो अरु पूजवावाला कने खावांकू मांगे अरु जा कहे मैं घना दिनका भूखा छ् । सो वे ही भूखा तो औराने उत्कृष्ट वस्तु देवां समर्थ कैसे होंय । जैसे कोई रंक पुरुष क्षुधा कर पीड़ित घर घर अन्यका दाना वा रोटीका ढूंक झूठा मांगता फिरे । अरु कोई अज्ञानी पुरुष वा कने उत्कृष्ट धनादिक सामग्री मांगे वाके अर्थ वाकी सेवा करे तो वह पुरुष जगतमें हास्य न पावै पावै ही तासू श्रीगुरु कहे हैं । हे भाई तू मोहके बस कर आंख्या देखी वस्तुने झूठी मत माने यह जीव ऐसी भ्रम बुद्धि कर अनादि कालका संसारमें भूला रुले कैसे रुले है । जैसे कोई पुरुषके दाहज्वरका तीव्र रोग होय ताकों कोई अज्ञानी कुवैद्य तीव्र उष्ण औषध देय तो वह रागी कैसे शान्तिता पावे त्यों ही ये जीव अनादि तैं मोहकर दग्ध भया है । सो मोहकी वासना तो या जीवके सर्वस बिना उपदेसा ही बनी रहे है। ताकर तो आकुल व्याकुल महादुखी है ही। फेर.ऊपर सों ग्रहीत मिथ्यातका फल अनन्त गुना खोटा है। सो तो गृहीत मिथ्यात द्रव्य लिंगी मुनि सर्व प्रकार छोड़े हैं अरु ग्रहीत मिथ्यात ताके भी अनन्तवें भाग ऐसा हलका अग्रहीत मिथ्यात ताके पावजे