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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २६३ अरु धर्म निनप्रनीत दयामयी वीतराग सिवाय सर्वको दूर ही ते तनना प्रान जाय तो जावो पन नमस्कार करना उचित नाहीं। आगे अहंतादिकका स्वरूप वर्नन करिये है। सो कैसे हैं अरहन्त प्रथम तो सर्वज्ञ हैं। जाका ज्ञानमें समस्त लोकालोकके चराचर पदार्थ तीन काल संबंधी एक सययमें झलके हैं। ऐसी तो ज्ञानकी प्रभुत्व शक्ति है । अरु वीतराग हैं। सर्वज्ञ होता अरु वीतराग न होता तो राग द्वेष कर पदार्थका सरूप .. और सू और कहता तो वा विर्षे परमेश्वरपना संभवता नाहीं। अरु वीतराग होता सर्वज्ञ न होता तो भी पदार्थका स्वरूप यथार्थ न कहता तो ऐसा दोष कर संयुक्त ताको परमेश्वर कौन मानता तासू तामें ये दोष होय एक तो रागद्वेष अरु अज्ञानपनों ते परमेश्वर नाहीं तातें ये दोषन कर रहित अहंत देव ही हैं । सोई उत्कृष्ट हैं सोई सर्व प्रकार पूज्य हैं । अरु सर्वज्ञ वीतराग होता अरु तारवाने समर्थ न होता तो भी प्रभुत्वपनामें कसर पड़ती। सो तो जामें तारन शक्ति ऐसी है । जो कोई जीव तो भगवानका सुमरन कर ही भव समुद्रतें तिरे कैई भक्ति कर तिरें कैई स्तुति कर तिरे इत्यादि एक एक गुन• आराध मुक्ति पधारें परन्तु प्रभूकू खेद रंच भी न भया सो महंत पुरषनकी अचिंत सक्ति है । जो आपने तो उपाय करनी पड़े नाहीं । अरु ताका अतिशय कर सेवकजनाका स्वयमेव भला हो जाय । अरु प्रतिकूल पुरषांका स्वयमेव बुरा हो जाय अरु शक्तिहीन पुरुष हैं ते डीला जांय अरु पेलाका भला बुरा करे तब वेसूं कार्य सिद्ध होय । सो भी नेम नाहीं होय व न भी होय ।