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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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आत्माके कर्म कैसे बंधहैं । श्रीगुरु कहे हैं जैसे एक सिंह उजाड़में तिष्टे था तहां एक मंत्रवादी अपनी इच्छा सों भ्रमें छो सो सिंह वह मंत्रवादीकू देख कोपित हो। तब मंत्रवादी एक धूलकी चिमटी मंत्री नाहरका सरीर ऊपर नाख दीनी सो ताकर नाहरकी देखन शक्ति विलय गई । अरु दूसरी चिमटी कर बावलो सारखो हूवो या जाने मैं स्याल हूं। एक चिमटी कर चलनशक्ति नास गई सो चल न सके अरु एक चिमटीका निमित कर नाहरको आकार ही और भयो अरु एक चिमटीका निमित्त कर नाहर आपने नीच ऊंच मानवा लागो अरु एक चिमटीका निमित्त कर अपना वीर्य क्षीन जानतो हूबो ऐसे आठ प्रकार ज्ञानावरनादि कर्म जीव रागद्वेष कर जीवाका ज्ञानादि आठ गुनको घाते हैं। ऐसे जानना ऐसे शिष्यने प्रश्न किया ताका गुरु उत्तर दिया सो ऐसे भव्य जीवांने अपना स्वरूप विषे लीन होनों उचित है । सिद्धांका स्वरूपमें आपना रूपमें साढस्यपनो है । सो सिद्धांका स्वरूपने ध्याय अरु निज स्वरूपका ध्यान करना घनी कहवांकर काईं ऐसे ज्ञाता स्वभावकू ज्ञाता जाने हैं । संपूर्न । आगे कुदेवादिकका स्वरूप निर्णय करिये है । सो हे भव्य तुं सूण सो देखो जगमें भी यह न्याय है । के तो आपसों गुनकर अधिक होयके आपनो उपगारी होय ताकों नमस्कार करिये वा पूजिये जैसे राजादिक तो गुणाकर अधिक हैं । अरु माता पिता उपगारी हैं । ताकरि जगत पूजे है अरु वंदे है । ऐसा नाहीं कि राजादिक बड़े पुरुष रैयत वा रंक पुरुषने वंदे वा पूजे अरु माता पिता पुत्रादिककू वंदे या पूर्ने सो तो देखिये नाही अरु कदाच मतिकी मंदता