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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
कर रानादिक बड़े पुरुष होय कर नीच पुरुषको पूजे अरु मातापिता भी बुद्धिकी हीनता कर पुत्रादिकळू पूजे तो वह जगतमें हास्यकर निन्दाकू पावे कौन दृष्टान्त जैसे सिंह होय अरु स्यालकी सरन चाहे । तो वह हास्यने पावे ही पावे यह जुगत है ही तामं धर्ममें अरहंतादिक उत्कृष्ट देवने छोड़ अरु कुदेवने पूजे तो काई ई लोकमें हास्यने न पावे पावे ही पावे । अरु परलोकमें नाना प्रकारके नर्कादिकके दुख अरु क्लेसकू नाहीं सहे अवस्य सहे । सो क्यों सहे सो कहिये है । जो आठ कर्मों में मोह नामा कर्म सर्व कर्मोका राना है। ताके दोय भेद हैं एक तो चारित्रमोह एक दर्शनमोह सो चारित्रमोह तो ई जीवको नाना प्रकारकी कषायां कर आकुलता उपजावे है । सो कैसी है आकुलता और कैसा है याका फल सो कोई जीव नाना प्रकार संयम कर संयुक्त है। अरु वा विर्षे कपाय पावजे हैं तो दीर्घकालके संयमादिक कर संचित पुन्य जैसे अग्निमें रुई भस्म होय तैसे कषायरूपी अग्नि विषे पुन्यरूपी रुई भस्म होय है अरु कषायवान पुरुष ई जगतमें महां निन्दाने पावे है । बहुरि कैसी है कषाय षोटी स्त्रीका सेवनमूं भी ताका पाप अनन्त गुना पाप मिथ्यातका है । अरु यो जीव अनादिकालको एक मिथ्यात कर ई संसार वि. भ्रमें है । सो मिथ्यात उपरान्त
और संसार विर्षे उत्कृष्ट पाप है नाहीं । अरु सास्त्रों वि एक मिथ्यातको ही पाप लिख्या है । सो जाने मिथ्यात्वका नास किया ताने सर्व पाप नास किया अरु संसारका नास किया सो ऐसा 'जान सर्व प्रकार कुदेव कुगुरु कुशास्त्रका त्याग करना । सो त्याग कहा कि देव अर्हत गुरु निग्रंथ तिल तुस मात्र परिग्रहसों रहित ऐसे