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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
है. मैं चैतन्य हूं। सो कैसा है आकाश काटा कटे नाहीं तोड़ा टूटे नाहीं पकड़ा आवे नाहीं रोका रुके नाहीं छेदा छिदे नाहीं भेदा भिदे नाहीं गाला गले नाहीं बाल्या बले नाहों याने आदिदे कोई प्रकार, भी नास नाहीं । मैं असंख्यात प्रदेशी प्रत्यक्ष वस्तू छू अरु मेरा ज्ञान गुन अरु परनमन गुन प्रदेसनके आश्रय है जे देश नाहीं होंय तो गुन किसके आसरे रहें । प्रदेश विना गुनकी नाश होय तब स्वभावकी नास होय जैसे आकासके विर्षे कोई वस्तु नाहीं त्यों होय जाय सो मैं छू नाहीं । मैं साक्षात् अमूर्तीक अखंड पदने धरचा हूं । अरु ता विषं ज्ञान गुनकू लिया हूं, ऐसी तीन प्रकार लक्षन संयुक्त मैं मेरा शरीरकू नीका जानूं हूं । अनभवू हूं कैसे अनभवू हूं । सो या तीन गुनाकी मेरे आज्ञा कर प्रतीत है। अरु ज्ञान अरु परनामनकी मेरे अनुभवन कर प्रतीत है कैसे प्रतीत है सोई कहिये है कोई मेरे ताई आय ऐसा झूठ ही कहे के तूं चैतन्य स्वरूप नाहीं यह बात फलाना ग्रन्थमें कही है। ऐसा मोकू कहे तब मैं उसकुँ ऐसे कहूं रे दुरबुद्धि रे बुद्धि कर रहित रे मोह कर ठगाया हुवा तेरे ताई कछू सुध नाहीं । तेरी बुद्धि ठगी गई है तब वह कहे मैं कांई करूं फलाना ग्रन्थमें कही है ऐसा कहे तो भी प्रतक्ष चैतन्य वस्तु परका देखन जाननहारा सो कैसे मानूं तब यह जानें जो शास्त्रमें ऐसा मिथ्या कहे नाहीं अरु आगे होसी नाहीं अरु मेरे ताई या कहे “आन सूर्न शीतल ऊगा तो मैं कैसे मानूं फिर कदाच या तो मानूं परन्तु मेरे ताईं झूठा कहे तू चैतन्य नाहीं तेरे परनमन शक्ति नाहीं । सो कदाच मानें नाहीं ये दोई गुनका