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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
धन्य तुमारा अनन्त बीर्य धन्य तुमारी परम वीतरागता धन्य तुमारी उत्कृष्ट दयालुता धन्य तुमारा उपदेश धन्य तुमारा जि नसासन धन्य तुमारा रत्नत्रय धर्म धन्य तुमारे गनधरादि मुनि व श्रावक व इन्द्रादि. अवृत सम्यकदृष्टी देव मनुष्य सो तुमारी आज्ञा सिरपर धारे हैं। तुमारी महिमा गायें हैं तातै धनी महिमा तुम्हारी कहां तक कहिये । तुम जयवंत प्रवर्तो अरु हम भी तुमारे चरननके निकट सदैव तिष्टें महा प्रीतसों भी जयवंत प्रवर्तो । इति श्रीजिन दर्शन संपूर्न । बहुर मार्गमें जेती वार जिन मंदिर आगे होय निकसिये तेती वार श्रीजिनका दर्शन करे विना आगे न जाइये । अथवा बहुवार जिनमंदिरके निकट आह्या समागवन करना पड़े तब बहुवार दर्शनका साधन सधे नाहीं तो बाह्य सों नमस्कार कर आगे जाना नमस्कार करे विन न जाना अरु मंदिरके विर्षे जेतीवार प्रतिमानी आमू सामू गमन करता दृष्टि पड़ें तेतीवार दोनों हस्तक मस्तकको लमाय नमस्कार करिये । बहुरि जो असवारी चढ़ आया होय अरु जिनमंदिर दृष्टि पड़े तो असवारी तें उतर पयादे गमन करे अरु चढ़ा निनमंदिर पर्यंत चला जाय तो यामें बड़ा अविनय है । अरु अविनय सोई महापाप है । अरु विनय सोई धर्म है देवगुरु अरु धर्म इनके अविनय उपरान्त अरु कुदेवादिकके विनय उपरान्त पाप तीन लोकमें हुवा न होसी न है । त्यों ही जासू उल्टा देवगुरु धर्मका विनय उपरान्त अरु कुदेवादिककी अवज्ञा उपरान्त धर्म तीन लोक तीन कालमें हुवो न होसी न है । तीसों देव गुरु धर्मके अविनयका विशेष भय राखना यामें चूके कही ठीकाना नाहीं । घनी कहा लिखिये ।