________________
ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
२४७
-
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
अनन्त गुनाकर पूरन भरया है । तातें औगुन आवने जागा नाहीं । ऐसे सिद्ध भगवानकू फेर भी हमारा नमस्कार होहु । ऐसे श्री गुरयां शिष्यने सिद्धाका स्वरूप बताया अरु ऐसा उपदेश दिया अरु आसीर्वाद दिया हे शिष्य हे पुत्र तू सिद्ध साहस्य है यामें संदेह मत करे, सिद्धनका स्वरूपमें अरु थारा स्वरूपमें फेर नहीं। जैसा सिद्ध है तसा ही तू है तू निश्चे विचार कर देख सिद्ध समान छे की नाहीं । देखता ही परम अनोपम आनन्द उपजेलो । सो कहवामें आवे नाहीं । तासू तू अब सावधान होय एकचित्त कर साक्षात् ज्ञाता दृष्टा तूं परका देखन जाननहारा तू देख ढील मत कर ऐसा अमृत रूप वचन श्री गुरुका सुन अरु शीघ्र ही अपना स्वरूपको विचार शिप्य करतो वो श्री गुरु परम दयालु वारंवार मुने याही बात कहा अरु योही उपदेश दियो सो याके कई प्रयोजन छे एक म्हारा भला करवाका प्रयोजन छ । तासू मोने वारंवार कहे छे सो देखो हूं सिद्ध समान हूं विना ही देखो यो नीव मरन समै ई शरीर माहिं सू निकस परगतिमें जाय तब ई शरीरका आंगोपांग हाथ पग आंख कान नाकादि सर्व चिन्ह ज्योंका त्योंही रहे है। अरु चैतन्य रहे तातें यह जान्या गया, देखवांवाला जानवांवाला कोई और ही था या शरीरमें चैतन्य शक्ति नाहीं । यह निर्धार भया ई बातमें चेतनपनाकी शक्ति अवश्य आई बहुरि देखो मरन समै यह जीव परगतिमें जाय तब कुटुम्ब परवारका मिलई घनो पकड़ पकड़ कर राखे अरु ऊड़ा भोहरामें गाड़ा किबाड़ जड़