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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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प्रत्यक्ष मोने मनद्वार कर दीखे । अरु यह नगर प्रत्यक्ष दीखे यह भरतक्षेत्र मोनें दीसे अरु असंख्यात दीपक समुद्र मोने दीखें । अरु पृथ्वी तले तिष्ठता नारकी जीव मोनें दीसे वा सोला स्वर्ग वा नवग्रेवक व उत्तर वा सर्वार्थसिद्धि वा सिद्धक्षेत्र विर्षे तिष्ठते अन्तिानंत सिद्ध महाराज वा समस्त त्रैलोक वा अमूर्तीक धर्म द्रव्य वा ऐते ही मान अमूर्तीक एक अधर्म द्रव्य वा ऐते ही मान एक एक प्रदेश विर्षे ऐक ऐक अमूर्तीक कालानु द्रव्य एक एक प्रदेश मात्र तिष्टें हैं । बहुरि अनन्तान्त निगोदके जीवनसू त्रैलोक भरया है । बहुरि चारों जातिके सूक्ष्म स्थावरनसू त्रैलोक भरया है । बहुरि जात चारके त्रस त्रसनाड़ीमें तिष्टें हैं । अरु नरक विर्षे नारकीनके महादुःख है । अरु स्वर्गन विषे स्वर्गवासी देव कीड़ा करें हैं । अरु इन्द्री जनित सुखकू भोगवे हैं । अरु एक एक समयमें अनन्त जीव मरते उपजते दीसें हैं। बहुरि एक दोय प्रमानूका स्कंध आदि देय अनन्त प्रमानूं वा त्रैलोक प्रमानूका महास्कंध पर्यंत नाना प्रकारके पुद्गल पर्याय मोडूं दीखें हैं । अरु समै समे अनेक स्वभावने लियां परनवता दीसे हैं । अरु दसों दिसाने अवलोकाकास सर्वव्यापी दीसे है । अरु तीन कालके सम्बन्धी सर्व पदार्थके पर्यायकी पलटनी दीसे है। केवल ज्ञानका जान पना प्रत्यक्ष मोकू दीसे है। सो ऐसा ज्ञानका धनी कौन है ऐसा ज्ञान किनके भया ऐसा नायक पुरुष तो प्रत्यक्ष साक्षात विद्यमान मोने दीसे है अरु यह जहां तहां ज्ञान ही ज्ञानका प्रकाश मोनें दीसे है। किसू शरीरका ही सो ऐसा जानपनाका स्वामी और नाहीं। मैंही हूं जो और होता तो मेरे तांई ऐसी खबर कैसे