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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
होती औरका देख्या और कैसे जाने तातें यह जानपना मेरे ही उपज्या है । अथवा यह जानपना है सो मैं हूं । तातें जानपनामें अरु मोनें दुजायगी नाहीं । मैं एक ज्ञानका निर्मल शुद्ध पिन्ड बन्या हूं। जैसे नोनकी डली खारका पिन्ड बन्या है। अथवा जैसे सर्कराकी डली मिष्टान अमृतका पिंड बन्या है । तैसे ही मैं साक्षात प्रगट शरीर भिन्न ज्ञायक स्वभाव लोकालोकका प्रकाशक चैतन्य धातु सुखका पिंड अखंड अमूर्तीक अनन्त गुन कर पूरन बन्या हूं। यामें संदेह नाहीं देखो मेरे ज्ञानकी महिमा सो अवार हमारे कोई केवल ज्ञान नाहीं। कोई मनपर्यय ज्ञान नाहीं कोई अवधि ज्ञान नाहीं। मति श्रुतज्ञान प.वजे छे सो भी पूरा नाहीं। ताका अनन्तवें भाग क्षयोपसम भया है । ताही तें ऐसा ज्ञानका प्रकाश भया अरु ताही माफिक आनन्द भया सो या ज्ञानकी महिमा मैं कौनकू कहूं । सो यह आश्चर्यकारी स्वरूप हमारो छे । कोई और को नाहीं । ऐसा अपना निज मित्रने अवलोक और कौनसू प्रीति करूं कौनकू आराधू अरु कौनको सेवन करूं अरु कौन पास जाय जाचना यरूं ईश्वर रूप पाया विना मैं करना था सो किया सो यह मोहका प्रभाव छो मेरा स्वभाव नाहीं। मेरा स्वभाव तो एक टंकोत्कीर्न ज्ञायक चैतन्य लक्षन सर्व तत्वका जाननहारा निज परनतका रमन हारा स्वस्थानका वस करनहारा राग द्वेषका हरनहारा संसार समुद्रका तारनहारा स्वरसका पीवनहारा ज्ञानपनाका करनहारा निरावाध विराग मन निरंजन निराकार अभोगत ज्ञान रसका भोगता वा परस्वभावका अकरता निज स्वभावका कर्ता सास्वता अब शरीरसूं भिन्न अमूर्तीक निर्मल पिन्ड पुरुषाकार