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ज्ञानानन्द श्रावकाचार।
राखे अरु वह आत्मा सर्व कुटुम्बको देखते ही घर फोड़ निकर जाय । सो किसीने भी देखे नाहीं तातें यह जान्या गया कि आत्मा अमूर्तीक छ । जो मूर्तीक होता तो शरीरकी नाई पकड़ा रह जाता तातें आत्मा प्रत्यक्ष अमूर्तीक ही है। यामें संसय नाहीं यह आत्मा नेत्र इन्द्रीके द्वारा पांच प्रकारके वर्णकं देखे हैं । अरु श्रोत इन्द्रीके द्वारा तीन प्रकार वा सात प्रकार शब्दोंकी परिक्षा करे है । बहुरि यह आत्मा नःसिका इन्द्र के द्वारा दोय प्रकारकी सुगन्ध दुर्गंध ताकू जाने है । बहुरि रसना कर पांच प्रकारके रसकू स्वादे है । बहुरि यह आत्मा सपरस इन्द्रीके द्वारा आठ प्रकारके सपरसकू वेदे है वा अनुभवे है वा निरधार करे है । सो ऐसा जानपना ज्ञायक स्वभाव विना इन्द्रीनमें नांही । इन्द्री तो जड़ हैं अनन्त पुद्गलकी परमानूं मिल कर बन्या है । सो जहां जहां इन्द्रियोंके द्वार दर्सनज्ञान उपयोग आवता है सो वह उपयोगमय मैं हूं और नाहीं भरमतें और भासे छे । तब श्री गुरांके प्रसाद कर मेरा भरम विलय गया मैं प्रत्यक्ष ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक सिद्ध साढस्य देखू हूं अरु नानू हूं अनुभवू हूं । सो अनुभवनमें कोई निराकुलत्व सुख शान्तीक रस उपजे है । अरु आनन्द अवे है सो यह आनन्द प्रभाव मेरे अखंड असंख्यात आत्मीक प्रदेशमें धारा प्रवाहरूप होय चले है। ताकी अद्भुत महिमा मैं जानू हूं के सर्वज्ञदेव जाने वचनगोचर नाहीं । बहुरि देखो मैं बहुत ओंड़ा तैखानामें बैठ कर विचारूं मेरे ताई वज मइ भीति फोड़ कर पदार्थ दीसे है ऐसा विचार होते मेरी यह हवेली देखो