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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । .
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पाल्या चाहे पानी में घोल्या चाहे तो आकास कैसे क्षेदा भेदा जाय अरु कैसे जले गले कदाच आकासका नास नाहीं बहुरि कोई आकास केतांई पकड़ा चाहे तोडा चाहे सो कैसे तोड़ा पकड़ा जाय त्योंही मैं आकाशवत अमूर्तीक निर्मल निराकार स्वच्छताका पिण्ड हों । मेरा नाम निसी काल कोई प्रकार होय नाहीं। यह नेम है जो आकासका नास होय तो मेरा भी नास होय ऐसा जानना पन आकासमें अरु मेरे स्वभावमें एक विशेष है। आकास तो जड़ अमूर्तीक है अरु मैं चैतन्य अमूर्तीक पदार्थ हों। जो मैं चैतन्य था तो ऐसा विचार भया सो यह आकास जड़ है अरु मैं चैतन्य हूं मेरे विद्यमान यह जानपना दीसे है। आकासमें दीसे नाहीं यह निसंदेह है बहुरि मैं कैसा हूं जैसा निर्मल दर्पन होय । वाका निर्मल शक्ति स्वयमैव ही घट पटादि पदार्थ आन झलकें हैं। तैसे ही मैं एक स्वच्छ सक्ति प्रगट हों मेरा निर्मल ज्ञानमय समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलके है। ऐसी स्वक्ष सक्तिसू तदात्म व्याप्ति कर स्वभावमें तिष्ठं हूं सर्वांग स्वक्षता भर रही है अरु ज्ञेय पदार्थ न्यारा है। सो तुक्षताका यह स्वभाव ही है। जो सर्वते न्यारा रहे उस विषं सकल पदार्थ प्रतिबिम्बत हैं। बहुरि कैसा हूं मैं अत्यंत अतिशय कर निर्मल साक्षात प्रगट ज्ञानका पुन हूं अरु अत्यंत शांति रस कर पूर्न भरया हूं । अरु भेद निराकुल कर व्याप्त हूं। बहुरि कैसा हूं मैं चैतन्य स्वरूप अपनी अनंत महिमा कर व्राजमान हूं कोईका सहाय नाहीं चाहूं हूं। ऐसा स्वभावने धरूं हूं स्वयंभू हूं अखंड ज्ञान मूरत पर द्रव्य सू भिन्य सास्वता अविनासी परम देव हूं।