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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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त्यांने जाने जन्म जन्मका दुख जाय त्यों जेई संसारमें दुख छे तेता आप्य जान्या तांसू एक ज्ञानने ही ध्यावो ज्ञानमई ही आपनो निज स्वभाव छे ताकू पाया ही महां सुख छ। ताके पाया विन महां दुखी छे । तामू यो परतक्ष देखने जानने हारा ज्ञायक पुरुष शरीरसू भिन्न ऐसो अपनो स्वभाव ताने छोड़ और किस वस्तुसू प्रीत उपजे जैसे सोला स्वर्गको कल्पवासी देव कौतुक वास्ते मध्य लोकमें आय एक रंक पुरुषको भेष धर रहो फेर वे रंक कैसी क्रिया करवां लागो काई क्रिया करवां लागो कभी तो काठका भार माथे धर बजारमें बेचवां जाय अरु कभी माटीको कथोरा माथे मेल स्त्रियां कने रोटी मागवा जाय । कभी मार्गमें दीनताका वचन कह रोवे । कभी राजापे जाय या भांति कहे महाराज आ जीवका कर महां दुखी छु हमारी प्रत पालना करो कभी दांतरोले घास काटवां जाय कभी भायाकर वृथा ही रोवे अरु ऐसा वचन कहे वाहरे वाहरे अब में कांई करूं हमारा धन चोर ले गया मैं नीठ नीठ कमाइ कमाइ भेले कियो छो सो आज जातो रहो सो अब हूं कैसे काल पूरो करस्यों अरु कभी नग्रमें भाग न पड़े तब वे पुरुष एक लड़काकू काधे चढ़ावे अरु लड़कीकी आंगरी पकरें अरु स्त्रीकू आगे कर ताका माथा पर क्षाजलो रांधवाकी हांडी झारवांकी बुहारि आदि सामग्री टोकरो भर दीयो अरु आपने गोदड़ा गुदड़ीकी पोट माथा लीनी । पाछे आधी रात नम सू निकस्या पाछे मार्गमें कोई वेढो ईतें पूछता हूवा रे भाई तू कठे चाल्या तब पुरुष कहे ई नम्र विषे बैरियोंकी फौन आई सो मैं आपनो धन लेय भागू छू