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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
जासों और नगर जाय गुजरान करसू इत्यादि नाना भांसि चरित्र कर तो वह कल्पवासी देव आपना सोलह स्वर्गकी विभूति ताने छिन मात्र भी न विसारे । वह विभूतका अवलोकन कर महां सुखी हूवां विचरै है । वे रंक पुरुषकी पर्यायमें भई जे नाना प्रकारकी विवस्था ता विर्षे कदाच अहंकार ममकार करे नाहीं। सो वे सोलवें स्वर्गकी देवांगना आदि विभृत अरु आपना देवो पुनीत सुख ता विर्षे नमस्कार आवे है। सोई में सिद्ध समान आत्म द्रव्य पर्यायमें नाना प्रकार की चेष्टा करता थका अपनी मोक्ष लक्ष्मीने नाहीं विसरू छु । तो हो लोक हो मैं काहे । भय करो अब ऐठां स्त्री सूं ममत्व छुड़ावें हैं, अहो शरीरकी स्त्री तू ई शरीरसों ममत्व छोड़ तेरा अरु इस शरीरका ऐता ही संयोग था सो अब पूरा हुवा तेरी गर्न ई शरीरसू अवे सरे नाई तासुं तू अब मोह छोड़ बिना प्रयोजन अब खेद मत करे, जो थांरा राखया यो शरीर रहे तो राख में बरजों नाहीं विना प्रयोजन खेद क्यों करूं अरु जो तूं विचार कर देखे तो तू भी आत्मा है। अरु मैं भी आत्मा हों स्त्री पुरुष पर्याय सो पुद्गली कहै तासूं कैसी प्रीति । ये जड़ आत्मा चैतन्य ऊट बैल कैसा जोड़ा सो यह संयोग कैसे बनें। तेरा पर्याय है सो भी तू चंचल जानता तूं आपना हित क्यों न विचारे थे ऐते दिन भोग किया ताकर काई सिद्ध हुई अरु अब सिद्ध काई होनी छे वृथा ही भोगां कर आत्माने संसारमें डुबोयो जो मरन समय जानों नाहीं । अर मुवां पीछे तीन लोककी संपदा झूठी तासू हमारी पर्यायको सोक करतो जोग्य नाहीं। नो तूं प्यारी म्हाकी छे तो म्हाने धर्म उपदेश द्यो या धर्म साधवाकी