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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
और ई उपरांत उत्कृष्ट देव कौनकूं मानिये। जो त्रिलोक त्रिकाल विषें होय तो मानिये बहुरि कैसा है यह ज्ञान स्वरूप अपने स्वभावकूं छोड़ अन्य रूप नाहीं परनवे है । निज स्वभावकी मर्यादा नहीं है जैसे समुद्र जलके समूह कर पूर्ण भरया है । पन स्वभावक छोड़ और ठौर गमन करे नाहीं। अपनी तरंगावली जो लहर ता कर अपने स्वभाव ही में भ्रमन करे है त्यों ही यह ज्ञान समुद्र सुद्ध परनत तरंगावली सहित अपने सहज स्वभावमें भ्रमन करे है । ऐसा अभूत महिमा कर ब्राजमान मेरा स्वरूप परम देव ई शरीर सूं न्यारा अनादि कालका तिष्टे है। मेरे अरु ई शरीर के पड़ोसी कैसा संजोग है । मेरा स्वभाव अन्य प्रकार याका स्वभाव अन्य प्रकार याका परनमन अन्य प्रकार सो अब इस शरीर गलन स्वभाव रूप परनवे है । तो मैं काहेका सोक करूं अरु काहेका दुख करूं मैं तो तमासगीर पड़ोसी हूवा तिष्टों हों इस शरीर सों राम द्वेष नाहीं सो जगतमें अरु परलोकमें महां दुःखदाई है । यह रागद्वेष एक मोह हीने उपजे है जाका मोह विग्य गया ताका राग द्वेष भी विलय गया । मोह कर पर द्रव्य विषें अहंकार ममकार उपजे है । सो ये द्रव्य हैं सो ही मैं हूं ऐसा तो अहंकार अरु ये द्रव्य मेरा है ऐसा ममकार उपजे वे सामग्री चाहे तो मिले नाहीं । अरु दूर किये जाय नाहीं । तब यह आत्मा खेद खिन्न होय है अरु जे सर्व सामग्री पर जानें तो काहेका विकलप उपजे तातें मेरा मोह पहले विले गया अरु पहिले ही सरीरादिक सामग्री विरानी जानी हैं। तो अब भी मेरे ई शरीरके जाते काहेका विकल्प उपजै | कदाच न उपजे विकलप उपजानेवाला मोह ताका
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