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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २३५ पयोगने आराधसी सो हमारे कोई प्रकारसे सुद्धोपयोगका सेवनमें कमी नाहीं तो हम रे परनामोंमें संकलेसता कोईकी न उपजे अरु म्हारा परनाम सुद्धरवरूपसू अत्यंत आसक्त ताकू छुड़ावने ब्रह्मा विश्नु महेश इन्द्र धरनेन्द्र आदि कोई चलावाने समर्थ नाहीं । एक मोह कर्म समर्थ था त्याने तो मैं पहि लेही हत्या सो अब मेरे तो त्रैलोक्यमें कोई वैरी रहो नाहीं। अरे वैरी नाहीं तो त्रिलोक त्रिकालमें दुख नाहीं। तोहे कुटुम्बके लोग हो मेरे इस मरनका भय कैसे होय तासों मैं आज सर्व प्रकार निभै भया हूं थें या बात नीके कर जानों अरु जामें संदेह मत जानों ऐसे सुद्धोपयोगी पुरुष शरीरकी स्थित पूरन जानें। तब ऐसा विचार कर आनंदमें रहें हैं । कोई तरह की आकुलता उपजावे नाहीं । आकुलता है सोई संसारका बीज है । इस ही नीति कर संसारकी स्थित है। आकुलता कर अनेक कालका संच्या हुवा संजमादि गुन अग्निमें रूई भस्म होय तैसे भस्म होय है तातें सम्यकदृष्टि पुरुष हैं ताके कोई प्रकार आकुलता होय नाहीं निश्चे एक स्वरूप हीका वारंवार विचार करना वाहीकू वारंवार देखना वाहीके गुण• चिंतवन करना वाहीकी पर्यायका विचार करना अरु वाहीका सुमरन करना वाही विषं थिर रहना कदाच सुद्ध स्वरूप सू उपजोग चले तो ऐसा विचार करे यह संसार अनित्य है। ई संसारमें कोईका सरन नाहीं । जो सार होता तो तीर्थंकर देव क्यों छोड़ता तासू मेरे निश्चे तो हमारो स्वरूप ही सरन है । बाह्य परमेष्ठी जिनवानी वा रत्नत्रय धर्म सरन है। अरु कदाच स्वप्न मात्र भी वा भूले विसरे हमारे और कोई