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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।।
गादि बनवावै पांछे वामें थितकर रागरंग सुख वोई संयुक्त आनन्द क्रीड़ा करे अरु निर्भे भया अत्यंत सुखसू तिष्टे सोई भेद वा ज्ञानी पुरुष है ते शरीरके रहने वास्ते । संयमादि गुननमें अतीचार भी लगावे नाहीं ऐसा विचारे · संयमादि . गुन रहसी तामें विदेह क्षेत्रामें जाय
औतार लेघां अरु जन्म जन्मका संचित पाप ताका अतिशय कर नास करस्या अरु अनेक प्रकारके संयम ताका ग्रहन करस्यूं अरु श्री तीर्थकर केवली भगवान ताका चरनार विद विर्षे क्षा एक सम्यक्तका ग्रहण करस्यूं अरु अनेक प्रकारके मन वंक्षित प्रश्न करस्यू अरु तिनके अनेक प्रकारके यथार्थ तत्वाको स्वरूप जानसू । अरु राग द्वेष संसारका कारन ताकू शीवपने अतिशय कर जरा मूलसों नास करतूं । अरु परम दयालु आनन्दमय केवल लक्ष्मी कर संयुक्त ऐसा जिनेन्द्र देव ताका स्वरूपके देख देख दरसनरूपी अमृत ताका अतिशय कर आचमन करस्यूं । ताका अरचन कर हमारा कर्म कलंक धोया जासी तब मैं पवित्र होसी ताका अतिशय कर शुद्धोपयोग अत्यंत निर्मल होसी तब निजरू ने अत्यंत लागसी तब क्षपक श्रेनी चढ़वाने सन्मुख होसी पीछे कर्म सत्रूसों रारकर भव भवके कर्म जड़ मूरसों नास कर केवल ज्ञान उपवासू । पीछे एक समय में समस्त लोकालोकके त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थ देखस्यू । पीछे ऐसा ही स्वभाव सास्वता रहसी ऐसी लक्ष्मीका स्वामी है तो ई शरीर सू ममत्व कैसे रहे । सम्यक ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करता तिप्टे है। हमारे दोनों ही तरह आनन्द है । अब जो शरीर रहसी तो फेर सुद्धो