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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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वाधारहित अखंडित सुख उपजे है । अरु परवस्तु कर संसारमें दुख ही है । सुखका आभास अज्ञानी जीवांकू भासे है । बहुरि कैसा हूँ मैं ज्ञानादि गुण कर पूर्न भरया हूं। सो ज्ञान अनन्त गुनकी खान है । बहुरि कैसा है मेरा चैतन्य स्वरूप जहां तहां चैतन्य सर्वांग व्यापी है । जैसे लूनकी डलीका पिन्डमें सर्वांग खार रस व्याप्त है । अथवा जैसे सकराकी डलीका पिन्डमें सर्वांग मीठा कहिए अमृत रस व्याप्त रहा है। वे सकराकी डली एक क्षोक्षा ज्ञानका पुन है। मोमें सर्वांग ज्ञान ही ज्ञान है विविहारमें शरीर प्रमाण हूं । निश्च नयकर विचार सेती तीन लोक प्रमान मेरा आकार है । अवगाहन सक्ति कर आकास समान हूं । एक प्रदेशमें असंख्यात प्रदेश भिन्न भिन्न तिष्ठे हैं। सर्वज्ञ देव जुदा जुदा देखे हैं जीवमें संकोच विस्तार सक्ति है । बहुरि कै है मेरा निज स्वरूप अनन्त आत्मीक सुखका भोक्ता है । एक सुख ही की मूर्ति हों चैतन्य पुरुषाकार हों । जैसे माटीका सांचामें एक सुद्द रूपामय धातुका बिम्ब निर्मापिये है। तैसे ही आत्माका स्वभाव शरीरमें जानना माटीका सांचा काल पाई गल जाय वरजाय फूट जाय तब बिम्ब ज्योंका त्यों आवर्न रहित प्रत्यक्ष दीसे सांचेका नास होते बिम्बका नास नाहीं वस्तु पहले दो ही थीं एकका नास होते दूनीका नास कैसे होय त्योंहीं काल पाइ शरीर गले तो गलो मेरे स्वभावका विनास है नाहीं । मैं काहेका सोच करूं । बहुरि कैसा है चैतन्य स्वरूप आकासवत निर्मल है। आकासमें कोई जातका विकार नाहीं एक स्वक्ष निर्मलताका पिण्ड है । अरु कोई आकाशने खड़ग कर क्षेदा भेदा चाहे अरु अग्नकर