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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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डरूं हूं। काल तो या शरीरका ग्राहक है मेरा ग्राहक नाहीं। जैसे माखी दौड़ दौड़ मीठी वस्तुपै बैठे अरु अगनिमें कदाच बैठे नाहीं त्योंही यह काल दौड़ दौड़ शरीरकू ग्रसे है अरु मोसू. दूर भागे मैं तो अनादि कालका अविनासी चैतन्य देव त्रलोक कर पूज्य ऐसा पदार्थ हूं । तापर कालका जोर नाहीं सो अब कौन मरे कोन जीवे । कौन मरनका भय करे म्हांने तो मरन दीसता नाहीं । मरे छै सो पहिले ही मुवा क्षा अरु जीवे छै सो. पहले ही जीवे क्षा जीवे सो मरे नाहीं मरे सो जीवे नाहीं मोह दृष्टि कर अन्यथा भासे छै अब मेरे मोह कर्म क्षय भया सो जैसा ही वस्तुका स्वभाव था तैसा ही मोकों प्रतिभास्या ताके जामन मरन सुख दुःख देख्या नाहीं । तो मैं अब काहेका सोच करों मैं तो एक चैतन्य मूर्ति सास्वता बन्या हूं। ताका अवलोकन करना, मरनादिकका दुख कैसे व्यापे बहुरि कैसा हूं मैं ज्ञानानंद रस कर पूर्ण भरा हूं अरु सुद्धोपयोगी हुवा ज्ञान रसने आरू चाहूं वा ज्ञान अंजुली कर अमृतने पीवू हूं यह सुधामृत मेरा स्वभाव थकी उत्पन्न भया है । तातें स्वाधीन है पराधीन नाही बहुरि कैसा हू मैं अपना निज स्वभावने स्थित हो अडौल हूं अकंप हूं बहुरि कैसा हूं मैं स्वरस कर निरभर कहिये अतिशय कर भरया हूं अरु ज्वलित कहिये दैदीपमान ज्ञान जोतकर प्रगट अपने ही निज स्वभाव मैं तिष्ट्र हूं देखो अद्भुत ई चैयन्य स्वरूपकी. महिमा ताका ज्ञान स्वभावमें समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलके हैं। पर ज्ञेयरूप नाहीं परनवे हैं ताके जानता विकल्प कास्ता अंस भी न होय है। तातै निर्विकल्प अभोगति अतेन्द्री अनोपम