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ज्ञानानन्द श्रावकाचार |
१९९. निध परम उपगारी है। संसार समुद्र के तारक हे दयामूर्ति हे कल्यान पुंज, हे आनन्दस्वरूप सर्व तत्व ज्ञायक हे मोक्ष लक्ष्मी अभिलाषी संसार सूं परान्मुख परम वीतराग जगत बंध
कायके पिता मोह विजई अमरन सरन मोपर अनुग्रह कर स्वर्गन के सुखका स्वरूप कहो सो का है । सिप्य परम विनयवान है आम कल्यानका अर्थी है संसारके दुखतें भयभीत है व्याकुल भया है वचन जाका कंपायमान है मन जाका वा कोमल गया है मन जाका ऐसे होत संता श्री गुरुकी प्रदक्षना देय हस्तं जुगल जोर मस्तक लगान श्रीगुरांके चरननकू वारंवार नमस्कार कर मस्तग उनके चरन निकट धरया है अरु चरन तलकी रज मस्तको लगावे है । आपने धन्य माने है । वा कृत कृत्य माने है विनय पूर्वक हस्त जोड़ सन्मुख खड़ा है । पीछे श्री गुरांका मोसर पाय बारंबार दीनपनाका वचन प्रकाश स्वर्गनके सुखका स्वरूप बूझे बहुरि कैसा है सिप्य अत्यंत पुन्यके फल सुन वाकी अभिलाषा जाकी जब ऐसा प्रश्न होते संते अब वे श्री गुरु अमृतरूप वचन कर कहे हैं बहुरि कैसे हैं परम निथ बनवासी दया कर भीज्या है चित्त जाका या भांत कहते भये हे पुत्र हे शिष्य हे भव्य हे आर्ज तेने बहुत अच्छा प्रश्न किया बहुत भली करी अब सावधान होइ सुन में तोह जिनवानीके अनुसार कहूं हूं । ए जीव श्री जिनधर्मके प्रभाव कर स्वर्गके विमानन में जाय उपजे है यहां की पर्यायका नास कर अंतमुहर्तकाल में उत्पन्न होय है । जैसे मेघ पटल विघटते देदीपमान सूर्य वादल बाहर निकसे तैसे उपपादक सिज्याके पट दूर
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