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: ज्ञानानन्द श्रावकाचारः ।
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वैरीनकी फौज आई, सो गुफा माह सूं निकसो, जेते वैंरीनका वृंद कहिये समूह केतीक दूर है ते ते तुम सावधान होय वैरीनं जीतो महंत पुरुषां की यही रीति है । जो वैरी आया कायर न होय सो सिंह ततक्षन ही उठतो हूवो अरु ऐसो गुंजारो मानो असाड़ माह में मेघ गानो सो ऐसा सिंहका शब्द सुन वैरीनकी फौजका हस्ती घोड़ा पुरुष सबही कंपायमान भया वा सिंहका जीतवाने असमर्थ भया हस्तीका समूह आगे पांव न धारता हुआ कैसा हस्ती डरया मानूं याका हृदाने सिंहका आकार पैठ गया है। सो हस्तीनका धीरज न रहा क्षिन क्षिन मोने हार करे तापरि सिंहका पराक्रम सहा न जाय । तैसे ही सम्यक ज्ञानी पुरुष सोई भय सिंह ताके अष्टकर्मी वरी सो मरन समय कर्म जीत वाका उद्यम विशेष करे वह सम्यकज्ञानी सिंह समान सावधान होय कायरपनाने दूर ही ते छोड़े बहुरि कैसा है सम्यक् दृष्टि पुरुष ताका हृदामें आत्माखरूप दीपमान प्रगट प्रत्यक्ष भास्या है कैसा मास्या है ज्ञान ज्योतिने लिया आनन्द रस भर तो ऐसा साक्षात पृरुषाकार अमूर्तीक चैतन्य धातुको पिन्ड अनन्त गुनकर पूर्ण ऐसा चैतन्य देव आपको जाने ताका अतिशय कर पर द्रव्यसूं अंसमात्र भी रंजिन कहिये रागी न होय है । क्यों न होय है । अपना निज स्वरूप तो वीतराग ज्ञाता दृष्टा परद्रव्य सों भिन्न स्वास्वता अविनासीक जान्या है । अरु परद्रव्यका गलन पूर्व छिन भंगुर असाता अपना स्वभाव भिन्न भलीभांति नीके जान्या है । सातें सम्यक ज्ञानी मरनतें कैसे डरे अरु वह ज्ञानी पुरुष मरन समय ऐसा विचारे अब इस शरीरका आयु तुक्ष रहा है । ऐ चिन्ह मोने प्रत्यक्ष भासे । तातें
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