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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
अरु धर्म ही कर मुक्ति पावे सो धर्म ही हमारो निन लक्षन है । निज स्वरूप है म्हारो स्वभाव है । सोई म्हाने गृहन करनो
और कर प्रयोजन नाहीं । अब दुर्लभानुपेक्षाकू चिन्तवे छै । देखो भाई संसारमें एकेन्द्री पर्याय सूं वेन्द्री दुर्लभ है । वेन्द्रीसूं तेन्द्री, तेन्द्री सूं चौन्द्री, चौन्द्री सूं पंचेन्द्री तामें मनुष्य पर्याय में भी धर्मीनकी संगति धर्म संयोग यह अनुक्रमसे दुर्लभसे दुर्लभ जानना, तामें भी सम्यक ज्ञान महां दुर्लभ जानना ऐसे वह देव भावना भावता हुवा पीछे आयु पूनकर मनुष्य पर्यायमें उच्च पद पावता हुवा अरु विना धर्म वेइन्द्रीन कर घटे है। ताते हे भाई हे पुत्र हे वक्ष धर्मका सेवन निरंतर कर धर्म ही संसामें सार है धर्म समान और हितू नाहीं । अरु मित्र नाहीं तातें सीघ्र ही पाप कार्यने छोड़ अपना हित वांक्षित पुरुषाने धर्म ही सेवनो ढील न करनो घनी बातकर कांई । ऐसे गुरु उत्तर दिया सुन्दर उपदेस कर आसीर्वाद दिया यह सुभावकू ज्ञाता जाने हैं । इति स्वर्ग वर्नन संपूर्न । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । आगे अपने इष्टदेवको नमस्कार कर समाधि मरनका स्वरूप वर्नन करिये है। सो हे भव्य तू सुन | सोई अब लक्षन वर्नन करिये है। सो समाधि नाम कषायका सांत परनामका है । ऐसा याका स्वरूप जानना आगे और विशेष कहिये है । जे सम्यकज्ञानी पुरुष हैं ताका यह सहज सुभाव है । जो समाधि मरन ही कू चाहे हैं ऐसी निरंतर सदैव भावना वर्ते पाछे मरन समय निकट आवे तब ऐसा सावधान होय. मानूं सूता जो सिंह ताके ताई कोई सुरुष ललकार ऐसा कहे है। सिंह अपना पुरषार्थ सम्हार थां पर