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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २२३ शरीर जड़ मूर्तीक तासू मेरा काई मेल ईको स्वभाव न्यारो म्हारो स्वभाव न्यारो ईका प्रदेश न्यारा म्हारा प्रदेश न्यारा ईका द्रव्य गुन पर्याय न्यारा म्हारा द्रव्य गुन पर्याय न्यारा । तासूमें यासू भिन्न त्रिकालका हूं। अब अशुचित्वानुपेक्षाका चित्तवन करें हैं । देखो भाई यो सरीर महा असुच है । अरु धिनावनो है । ऐता दिन या सरीरने पोषता भया काम पड्यो तब दगा ही दिया ई सरीरने सागर भरपानी सो धोवो तो भी पवित्र न होय । यो जड़ अचेतन ही रहे तासू बुधजन ऐसा सरीर सू कैसे प्रीति करें कदाचि न करें । अब आश्रवानुपेक्षाको चिन्तवन करें हैं । देखो भाई यो जीव मिथ्यात अवि. रति प्रमाद कषाय योग इनकर उपना जो भावत द्रव्यत कर्म ताकर संसार समुद्रमें डूवे हैं । कैसे डूबे है जैसे छिद्र सहित जिहाज जलमें डूबे । अब संवरानुपेक्षा चिन्तवें हैं । देखो भाई जिहाजका छिद्र मुंदे जल न आवे तैसे तप संयम धर्म कर संवर होय है । अब निर्जरानुपेक्षाको चिन्तवन करे है। देखो भाई आत्माका चिन्तवन कर पूर्वला कर्म नाप्सर्वं प्राप्त होय । जैसे जिहाजमेंका पानी उछाल दीजे निहाज तीर पार होय वैसे आत्माकू कर्मरूप बोझ करि रहित कर मुक्तिकी प्राप्त करे । अबलोकानुपेक्षाका चितवन करें हैं। देखो भाई यह लोक षट् द्रव्यनका पप्तार है । कोईका किया नाहीं। अब धर्मानुपेक्षाका चितवन करें। देखो भाई धर्म ही संसारमें सार है । अरु धर्म ही मित्र है । अरु धर्म ही बड़ो हितू है । अरु धर्म विना कोई सरन नाहीं तातै धर्म हीको साधन करनो अरु धर्म ही आराधनों जेता. त्रैलोकमें उत्कृष्ट सुख है सो धर्म हीका प्रसाद कर पाते है।