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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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संख्यात व असंख्यात देवांगना दर्सन वास्ते आवे व जांय हैं। ताकी महमा वचन अगोचर है देखतेही आवे ताते ऐसे जिन देवकू हमारा नमस्कार होय वारंवार घनी कहवाकर पूनता होहु, बहरि कैसे हैं जिनबिम्ब मानू बोले हैं कि मुलकें हैं कि हंसे हैं कि स्वभावमें तिष्टे हैं। मानूं ऐसा स्यात तीर्थकर ही हैं। भावार्थनख सिख पर्यंत जिनविम्बका पुद्गल स्कंध तीर्थकरके शरीरवत अंग उपंग शरीरकी अवयव हाथ पग मस्तक आदि सर्वांग बर्न गुन लक्षनमय स्वयमेव अनादि निधन परनवे है । तातै तीर्थकर सादृश्य है विशेष तीर्थंकर महारानके शरीर विर्षे केवल ज्ञानमय आत्मा द्रव्य लोकालोकके ज्ञायक अनन्त चतुष्टय पंडित विराने हैं। जिन बिम्बको वे देव पूजे हैं । अरु मैं भी पुज्यूं हूं और भी भव्यजीव पूनन करो एक नयकर तीर्थंकरका पूजने बीच प्रतिमाजीके पूजनेका फल बहुत है । सो कसो कहिये है । जैसे कोई पुरुष तो राजाकी विद्यमान सेवा करे है । अरु कोई पुरुष रानाकी छबीकू पूजे तब राना देशान्तरसे आवे तब ई पुरुष सो बहुत रानी होय अरु या विचारे जाने हमारी छबीकी सेवा करी सो हमारी. करे ही करे तातें ऐसा भक्त जान बहुत प्रसन्न होय । त्योंही प्रतिमाजीके पूजनमें बहुत अनुराग सूचे है । फल है सो एक परनामाकी विसुद्धताका ही है । अरु परनाम होंय सो कारनके निमित्तसे होंय जैसा कारन मिले तैसा कार्य उत्पन्न होय निःकषाय पुरुषके निमित्त ते पूर्व कषाय गल जाय जैसे अग्निके निमित्तसे दूध उवल भाजनमें सू निकसे अरु जलके संयोगसे भाजनमें निरूप पररनमें त्योंही प्रतिमाजीके सांत दसाने देख निर्मल परनाम निर्विकार