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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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in मूर्ति कीड़ा करवा चालो म्हाने त्रप्ति करो बहुरि कैसा है स्वर्ग कहीं तो धूपकी सुगन्ध फैली है। कहूं देवांगनाका समूह विचरे है । कहीं धुजानका समूह चाले है । कहीं पन्ना साढस्य हरयाली होय रही है । कहीं पहुपवाड़ी फूल रही है कहीं भ्रमर गुंजार कर रहे हैं । कहीं चंद्रक्रांति मनिकी सिलानकर सौभित है । तामें देव तिष्टे हैं । कहीं कांच साढस्य निर्मल वा जल साढस्य निर्मल पृथ्वी सोभे हैं। मानू जलके दर आयुती है। ताके अवलोकन करतें ऐसी संका उपजे हैं । मतं यामें डूब जाय कहीं मानिक सारखी लाल सोना सारखी पीत भूमि वा सिला सोभे है कहीं तेल कर मथो काजल साढस्य वा काली वादरी साढस्य भूमि सोभे मानू पापके छिपावे पापकी माता ? इत्यादि नाना प्रकारके वर्न लियां स्वर्गाकी भूमि देवताके मनकू रमावे हैं। ओर सर्वत्र पन्ना सारखे हरी अमृत सारखी मीठी रेशम सारखी कोमल वावन चंदन सारखा सुगन्ध सावन भादवांकी हरयाली साहस्य पृथ्वी सोभे सदा एकसी रहे है। बहुरि ठौर ठौर ज्योतिषी देवनका विमान साहस्य उज्जल आनन्द मंदिर वा . सिला वा पर्वतनके समूह तामें देव तिष्टं हैं । कहीं सोवन रूपाके पर्वत सोभे हैं । कहीं वैडूर्यमन पुष्पराग मोतनके समूह नानके ढेरवत परे हैं । कहीं आनन्दमंडप है कहीं कीड़ा मंडप है। कहीं सभामंडप है कहीं चरचा मंडप हैं कहीं केल मंडप है कहीं ध्यान मंडप है। कहीं चित्रामवेल कहीं कामधेनु कहीं रसकूप कहीं अमृत कुंड भरया है। कहीं नील मन आदि मन्यांके ढेर परे हैं। ऐसे सोभाके समूह कर व्याप्त हैं।