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- ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
२०१ स्त्री इन्द्रानी सादृस्य तिनकी सुगंध फैल रही है । तिनके शरीरका प्रकाश कर सर्व ओर उद्योत है । जहां तहां रतन मानिक पन्ना हीरा चिन्तामन रतन पारस कामधेनु चित्रावेल कल्पवृक्ष इत्यादिक अमोलक अपूर्व निधके समूह दीसे हैं । अरु अनेक प्रकारके मंगलीक वादित्र बाजे हैं। केई गान करें हैं केई ताल मृदंग बनावें हैं, केई नृत्य करे हैं, केई अद्भुत कौतूहल करें हैं । केई रतनके चून कर मंगलीक देवांगणान सो स्थान पूरे हैं । केई उत्सव वर्ते हैं केई जस गावें हैं केई धर्मकी महिमा गावे हैं केई धर्मका उत्सव करें हैं सो बड़ा आश्चर्य है । ए कहा है, मैं न जानू ऐसी अद्भुत चेष्टा आनन्दकारी अपूर्व अब तक देखनेमें न आई । सुनने में न आई मानू यह परमेश्वरपुरी है वा परमेश्वरका निवास ही है । अथवा मेरे तांई भ्रम उपज्या है । ऐसा विचार करते संते वे पुन्याधिकारी देवताके सर्व आत्म प्रदेशों वि सो उपग्रही अवधिज्ञान फुरायमान है ताके होते पूर्वला भवकू निश्चय करि यथार्थ देखें है। ताके देखवे कर सर्व भ्रम विलय जाय तब फेर ऐसा विचार है। में पूर्व जिनधर्म सेवन किया था ताका ये फल है सुम्न तो नाहीं अरु भ्रम भी नाहीं इन्द्रनाल भी नाहीं। मरा पीछे प्रत्यक्षमें कलेवरकू ले जाय कुटुम्ब परवारके लोग मसान भूममें दग्ध करें हैं। ऐसा निसंदेह है यामें संदेह है नाहीं बहुरि कैसे हैं वे देव देवांगना अरु कैसा है विभूत अरु कैसे हैं मंगलाचरन कैसे हैं जन्मका जान शीघ्र ही उछव संयुक्त अवता भया अरु. . दीनपनाका विनयपूर्वक वचन लघुताई कर प्रकासता भया कैसा वचन प्रकासता भया जय जय स्वामिन जय नाथ