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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
होते वह पुन्याधिकारी संपूर्न कला संयुक्त जोतिका पुन आनंद सौम्य मूर्ति सबको प्यारा सुन्दर देव उपजे है बहुरि जैसे बारा बरसका राजहंस महाअमोलक आभूषन पहरे निद्रा ते जाग उठे कैसा है वह देव संपूर्न छहों पर्याप्ति पूर्न कर शरीरकी क्रान्ति सहित रतनमय आभूषन वस्त्र पहिरें सूर्न वत उदय होय है अनेक प्रकारकी विभूतिको देख विसमय सहित दसों दिसानकू आलोकन करे मनमें यह विचारे मैं कौन हूं कहां था ? कहां आया यह स्थानक कौन है ? यह अपूर्व और रमनीक अलौकिक मन रमनेका कारन अद्भुत सुखका निवास ऐसा अद्भुत स्थान कौन है । यह जगमग रत्नोंकी जोति कर उद्योत हो रहा है अरु मेरा देव सारखा सुन्दर आकार काहेतें भया अरु जहां तहां ये सुन्दराकार मनोज्ञ मनकू प्यारा देवन सारखा कौन है । अरु विना बुलाये मेरी स्तुति करे है । नम्रीभूत होय नमस्कार करे हैं अरु मीठा विनयपूर्वक वचन बोले हैं। सो ये कौन है सो यह संदेह कैसे मिटे ऐसी सामग्री कदाच साची होय अरु कैसे है ये स्त्री पुरुष गुलाबके फूल सारखे मुख जिनके अरु चन्द्रमा सादृस्य है सौम्य मूर्ति जिनकी सूर्य सादृस्य है प्रकाश जिनका रूप लावन्य कर अद्भुत है 6बहीकी दृष्टि एकाग्र मो तरफ है मोने स्वामी साढस्य मान हाथ जोड़ खड़े हैं अरु अमृतमई म ठा कोमल विनय सहित म्हारा मन माफके वचन बोले है । ताकी महमा कौनकू कहिये धन्य है ए स्थान अरु धन्य ये पुरुष वा स्त्री धन्य हैयाका रूप धन्य है । प्रवीनता धन्य याका विनय गुन वा सजनता वात्सल्यता बहुरि कैसे हैं पुरुष स्त्री पुरुष तो सर्व कामदेव साढस्य अरु