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ज्ञानानन्द श्रावकाचार। १८९ था सो स्वर्गका पद पाया तीसू जिन धर्मका महात्म अलौकीक है । ताते प्रतिमाजीका वा सास्त्रका वा निग्रंथ गुरूका इनके अविनयका विशेष भय राखना । कोई यह प्रश्न करे प्रतिमाजी तो अचेतन हैं ताके पूजे काई फल निपनै ताका सामाधान मंत्र तंत्र मंत्र औषद चिन्तामन रतन कामधेन चित्रावेल पारस कल्प वृक्षने अचेतन हैं अरु वांछितफल दे हैं अरु चित्रामका स्त्री विकार भ व उपजावे हैं पीछे वा का फल नर्कादिक लागे है । त्योंही प्रतिमा जान निर्विकार शांति मुद्रा ध्यान दशाकू धरै तिनका दर्शन किये वा पूजन किये मोह कर्म गले राग दोष विलय जाय ध्यानका स्वरूप जान्या जाय तीर्थंकर महारान वा समान केवलीकी छवी याद आवे है सो वाके निमित्तकर ज्ञान वैराज्ञकी विशेष वृद्धि है । ज्ञान वैराज्ञ ही मोक्ष मार्ग है । अरु शास्त्र भी अचेतन है। ताका अवलोकन कर आत्म ज्ञान वैराज्ञकी वृद्धि होती देखिये है । जे ते धर्मके अंग हैं ते ते सर्व शास्त्रनतें जानिये ता जानवे कर यह वस्तु त्यांग सहज ही होय जाय उपादेयका ग्रहन कर लेय पीछे मोक्ष होय जाय सो वह निर्वान अविनेस्वर है । तात यह बात सिद्ध भई । इष्ट अनिष्ट फल कारन एक शुभाशुभ परनाम हैं । अरु इन , परनामनके कारन अनेक ज्ञेय पदार्थ हैं। कारन बिना कारजकी सिद्धि त्रिकालमें नहीं जैसा कारन मिले तैसा कार्य निपजै तातै प्रतिमाजीका पूजन सुमरन ध्यान अविषेक परम उछव विशेष महिमा करनी उचित ही है । जो कोई मूर्ख अज्ञानी अवज्ञा करे ते अनन्त संसार विषं भ्रमें हैं । चतुर गतिके जीवकू मुख्य धर्म श्री जिन प्रतिमाका पूजन कहा है । तातें सर्व