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ज्ञानानन्द श्रावकाचार |
उठावे नाहीं इत्यादि शरीरकी प्रमाद क्रिया छोड़े अरु सामायक विषें मौन राखे जिन वानी विना ओर कछू पड़े नाहीं विशेष विनय सहित सामायिक करे सामायिक करनेका अगाऊ उक्षव रहै कि ये पीछे पढिताय दोय चार घड़ी निरर्थक काल गमाया ऐसा भाव न करे जो एती वेर लागी नातर कछू गृहस्तीका कार्य सिद्ध करना अरु ऐसा भाव राखे मैं अवार वृथा ही उठा अवे मेरा: परनाम घना शुद्धता जो बैठा रहाता तो कर्मनकी निर्जरा विशेष होती बहुरि सामायिक में दोयवार पंच नमस्कार पंच परमगुरुः कोकरे बारा आवृतन सहित चार श्रोत्रित करे नो वार नमोकार मंत्र पढ़े ऐते काल पर्यंत एकवार खड़ा होय कायोत्सर्ग करे सो नमस्कार तो सामायिकका आदि अंत में करे । भावार्थ । चार श्रीनित वारा अवृतन सहित अरु एक कायोत्सर्ग ये तीनों क्रिया सामायिकका मध्यकाल विषे ताकी व्यौरा सामायिक पाठका चोईस संस्कृत वा प्राकृत पाठी है । तामें या विध है तासूं समझ लेना बहुरि सामा1 यक करती वार प्रभातका सामायक करने बैठती वेर रात्र सम्बन्धी कुशीलादिक क्रिया कर उत्पन्न भया जो पाप ताके निर्वृत्यके अर्थ श्री अरहन्त देवसूं छिमा करावे अपनी निन्दा करे में महा पापी छू मो इह पाप कार्य छूटतावे में कब आवेगा जबमें जाका जन करूंगा याका फल उदें आये अत्यंत कटुक लागेगा सो हे जीव तू कैसे भोगसी यह तो तनकसी वेदना सहवेकूं असमर्थ है । तो परभ में नरकादिक घोरान घोर तीव्र वेदनाके दुःसह दुःख दीर्घ काल पर्यंत कैसे सहेगा जीवका पर्याय छाड़ने ते तास होता नाहीं यह तो अनादि निधन अविनाशी ताने परलोक अवश्य आपही कूं