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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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भोगने परेंगे। परलोकका गमन ऐसे हैं जैसे गावसो गावान्तर क्षेत्रसो क्षेत्रान्तर देससो देसान्तर कोई कारजकू गमन करिये सो जो क्षेत्र छोड़ा तहा तो किछू उस पुरुषका अस्तित्व रहा नाहीं अरु जो क्षेत्र में जाय प्राप्त भया तहां उस पुरुषका अस्तित्व ज्योंका त्यों है तो वह पुरुषकूं क्षेत्र छोड़े कछू वा पुरुषका तो नाश न भया अरु कोई क्षेत्र विषं जाय प्राप्त भया तो तहां तिसकूं उपजान कहिये परजायकी पलटन है पूर्व क्षेत्र विषे तो वृद्ध हुवा उत्तर क्षेत्र में बालक भया अथवा पूर्वे दुःखी था पीछे सुखी भया अथवा पूर्वे सुखी था पीछे दुःखी भया ऐते ही परभवके शरीरका स्वरूप जानना । पूर्वे मनुष्य क्षेत्र में था पीक्षे नर्क क्षेत्रमें गया पूर्वे सुखमई पर्याय थी अब ये दुखमई पर्याय भई पूर्वे कोई मनु यभवमें दुखी था अब पीछे देव पर्याय में सुखी भया ऐसे ही भव भवमें अनेक पर्यायकी फिरन जाननी जीव पदारथ सास्वता है तीसों हे जीव ये पाप कार्य छोड़े तो भला ही है। ऐसा दरेग करता संता दोऊ हस्त जोड़ मस्तकने लगाय श्री जिनेन्द्र देवकूं परोक्ष नमस्कार कर ऐसे प्रार्थना करे हे भगवान ये मेरे पाप निर्वृत्य करो तुम परम दयालु हो सो मेरे औगुन न हेरो मेरी दया ही करो मोने दीन
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था मोपे छिमाही करो माता पिता आप ही हो सो पुत्र चाहे जैसा औगुनग्राही होय परन्तु माता पिता छिमा ही करे । अरु वाका सिंह सिंह प्रकार मला ही करे सो ए जिनेश एजिनेन्द्र देव मोपर अनुग्रह करो । अरु यह पाप मलिनताको हरो तुमारे अनुग्रह विना पाप पर्वत गले नाहीं तार्ते मो ऊपर विशेष प्रीत
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