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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १८५ वकी प्राप्ति होय । सुख छ सो आत्म स्वभाबमें छे सो में स्वभाव सुखका अर्थी हूं तातै निज स्वभावकी प्राप्तिको अवश्य चाहूं हूं सो तुमारे अनुग्रह विना व सहकारी विना यह कार्य सिद्ध होय नाहीं तातैं और सर्व कुदेवादिकने छोड़ तुम्हारे ही सरन प्राप्त भया हूं मेरा करतव्य था सों तो कर चुकया अब करतव्य तुम्हारा है। तुमने तरन तारन विरध धरया है सो अपना विरध राष्या चाहो हो तो मोने अवश्य तारो त्यों तारने तेंही तुमारी कीर्ति लोकमें फैली है । आगे अनंत काल पर्यंत रहेगी सो हे प्रभू आप उद्धत विरध धरयो है । अरु अनंत जीवाने मोक्षदीनी अंजनचोर सारखा अधम पुरुष ताको थोड़े ही कालमें शीघ्र ही मोक्ष पहुंचाया और भरत चक्रवर्त सारखा बहु परिगृही ताने एक अंतर महूर्तमें केवलज्ञान पाया श्रेणिक महारानने गुरूका अविनय किया मुनका कंठ विषं सर्प डारया बौधमती हूवो ता पाप कर सातवां नर्ककी आयु बंधी ताकू तुम मिहरवानी कर आप सारखा एका भवतारी कर लिया इत्यादि घनाही जीवांने तारे सो अब प्रभूजी मेरी वेर क्यों ढील कर राखी है । सो यह कारन कहा है। हमने जाने तुम वीतराग परमदयालु कहावो सो मेरी दया क्यों न करो मेरी वेर ऐसा कठोर परनाम क्यों किया सो आपने यह उचित नाहीं । अरु में घना पापी था तो भी तुम पाप्त पूर्वेही क्षमा कराई तातें मेरा अपराध क्यों भी रहा नाहीं। तीसों अबमें नेम कर ऐसा जानो हो । जो मेरे भी थोरे भव बाकी रहे हैं । सो परताप तुमारा ही है । सो तुमारे जस गायवेकर कैसे त्रप्त हूजिये सो धन्य तुमारा केवलज्ञान धन्य तुमारा केवल सुख