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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । लेंनेंका है। सो बेंद्रीं तेंद्री चौइन्द्री असैनी पचेन्द्री येतौ तिर्यंच अरु मनुष्य नारकीनकै पाइये अरु मानसीक आहारकी इक्ष्या भये कंठमांसू अमृत अवै ताकर तृप्ति होय ताकौ कहिये। अरु उज्झा आहार पंखीनके अंडेन कर पाईये है। सी पक्षी गर्भमासू बाहर अंडा धेरै है वे केते दिन अहार बिना ही बृद्धिनै प्राप्त होय सो वा विषै वीरज्य धान पाइये है । ताके निमित्त कर शरीर पुष्ट होय है। कोईके हस्तादिक लगाय वीर्य्य गलि जाय है। बहुरि लेय आहार सर्वांग शरीर विषै व्याप्त होय । ताकौ कहिये है. सो एकेंद्री पांचौ थावरकै पाइये है। जैसे वृक्ष मृतका जलकौजड़सेती खेंच सर्वांग अपनै शरीररूप परनवावे है । सो यह चार प्रकारके आहार तौ छुध्याके निवृत्त करनैका कारण है। बहुर नौकर्म अहार छै सो पर्याप्ति पूर्ण करनैका कारण है । सो समय समय सर्व जीव नौकर्म जातकी वर्गनाका ग्रहन करै । प्राप्त रूप परनवावै है सो कारमान कायका तीन समै अंतरालके छोड़ वा केवलीका समुद्घात विषै प्रतरके काल जुगलका दो समय पूरण कर । एक समय बिना, आयुका अंत समय प्रजंत त्रिलोकके सर्व जीव सिद्ध अर अयोग्य चौदहां गुणस्थानवी केवली या गुन लहै । ताकी अपेक्षा तेरा गुणस्थान पर्यंत आहार कहा है। सो तो हम भी मानै है परंतु कवला आहार छटौं गुणस्थान पर्यंत ही है । ताते आहार संज्ञा छटां गुणस्थान पर्यंत कही है । मानसीक आहार चौथा गुणस्थान पर्यंत ही है । ओझा लेय प्रथम गुणस्थान विषै है है बहुर करम आहार आगै कारमानके ग्रहण करनेका है । सो यह संसारी जीव सिद्ध अयोम केवली बिना