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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
करनेको कांत भावनास्वरूप दिखाय मोह भ्रम जिनवानी किरन्या कर दूर किया। तीन लोकका करता षट् द्रव्य है । षट् द्रव्य समुदायका नाम लोक है । जहां षट् द्रव्य नाहीं एक आकास ही है ताका नाम अलोक है । इस लोक एक पदार्थ करता नाम ही ए लोक अनादि निधन अक्रतम है। अवन्य जी सास्वता स्वयं सिद्ध है। बहुरि ये जीव अधर्म विषे लग रहा है अधर्म कर्ता तृती होता नाहीं । अधर्म क्रियाका बुरा होय है महा क्लेस पाये है । ऐसे ही अनादिकाल वीता परन्तु याके धर्म रुच कवहुं न भई तातें अधर्म छुड़ावनेके अर्थ धर्म भावना स्वरूप दिखाय धर्ममें लगाय अरु धर्मको सार दिखाया और सब असार दिखाया । धर्म विना या जीवका कबहुं भला होय नाहीं तात सर्व जीव धर्म चाहें हैं। परन्तु मोहके उदय कर धर्मका स्वरूप जाने नाहीं धर्मका लक्षन तनक ज्ञान वैराज्ञ है । अरु यह जीव अज्ञानी हुआ सराग भावा विषं धर्म चाहे है अरु परम सुखकी वक्षा करे है । सो यह वांक्षा कैसे है जैसे कोई अज्ञानी सर्पके मुखसों अमृत पान चाहे वा जल विलोय वृत काड्या चाहे वा वजानि विर्षे कमलके बीज वोय वाकी छाया विर्षे विश्राम किया चाहे । अथवा वांझ स्त्रीके पुत्रके विभावके विर्षे आकासके पुण्यका सेहरा गूंथ मुवा पीछे वाकी सोभा देख्या चाहे है । तो वाकी मनोर्थ कैसे सिद्ध होय । अथवा सूरज पच्छिम विर्षे उदय होय, चंद्रमा उस्न होय । सुमेर चलाचल होय । समुद्र मर्यादा लोपे वा सूख जाय । वा सिला ऊपरे कमल ऊंगे। अग्नि शीतल होइ । पानी उस्न होय । वांझके पुत्र होय । आकासके पुष्प लागें। सर्प निर्विष होय ।