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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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भूत करे है । तातें तुमारा चरनाने वारंवार नमस्कार होहु । ये ही चरन जुगल मोने संसार सन्द्र विषं परसी राषसी । बहुरि अग्नि कायके जीव असंख्यात लोक प्रदेस समान है । तात असंख्यात लोक वर्ग स्थान एक निगोदके शरीरके प्रमान है । तातें असंख्यात लोक वर्ग स्थान गये निगोद एक शरीरकी स्थितका प्रमान है । तात असंख्यात लोक वर्ग स्थान गये योगाके अविभाग प्रतिच्छेद है । सो भी असंख्यातके ही भेद हैं। सो हे भगवाननी ऐसा उपदेश तुमही दिया । बहुरि जे असंख्याते दीप समुद्र हैं । ए अढाई दीप प्रमान मनुष्य क्षेत्र है ताका भी निरूपन तुमही किया । यह जोतिक पटल है। ताके प्रमान जुदे जुदे दीप समुद्र तुमही कहे । बहुरि पुद्गल परमानू वा इनका स्कंधका प्रमान महां स्कंध पर्यंत तुम कहा इत्यादि अनंत द्रव्योंके तीन काल संबंधी द्रव्य गुनपर्याय वा द्रव्यके क्षेत्रकाल भाव सहित और स्थान लिये अनंत विचित्रता एक समयमें लोकालोककी तुमही देखी । सो तुमारे ग्यानकी अद्भुत महिमा तुम्हारे ही ज्ञान गम्य है। ताते तुमारे ही ज्ञानकू फेर भी हमारा नमस्कार होहु । अहो भगवान तुम्हारी महिमा अथवा तुम्हारे गुणनकी महमा देख अति अचरज उपजै है । अरु आनन्दका समूह उपजै है । ता करि हम अति त्रप्त हैं। तातें हे भगवान जीव दया अमृत कर भव्य जीवांने तुमही पोखो हो। तुमही त्रप्ति करो हो तुमरे वचन विना सर्व ही लोक अलोक सून्य भये हैं। तातै समस्त जीव भी सून्य हो गये सो अबै तुमारे वचन रूप किरनन कर अनादका मोह तिमिर मेरा विलय गया अब मोने तुमारे