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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । निज स्वरूप कहा है । कैसा हमारा ज्ञान है कैसा हमारा दर्सन है। कैसा हमारा सुखवीर्य गुन हम कौन हैं । हमारा द्रव्य गुन पर्याय कहा है । पूर्वं हम किस क्षेत्रमें किस पर्यायकू धरै तिष्टे थे । अब इस क्षेत्र ई पर्यायमें कौन मित्रने ल्याय प्राप्त किये। अरु. अब हम कहा कर्तव्य करें हैं अरु कौनका परनाया परनवे हैं । सो जाके फल अच्छे.लागेंगे वा बुरे लागेंगे हम कहां जायगे कैसी कैसी पर्याय धरेंगे सो हम किछू मानते नाहीं । तो हमारे खुशीका उपाय जो ज्ञान सो कैसे पावें जो हमारे ही ऐता ज्ञानका क्षयोंपसम होते परम सुखी होनेका उपाय भासे नाही तो एकेन्द्री आदि अज्ञानी तिर्यंच जीव वा नारकी महा कलेस कर पीड़त जाके आंखके फरकने मात्र भी निराकुलताका कारन नाहीं । तो उन जीवनकू कहा दोष परन्तु धन्य है आपकी दयालुता। धन्य है आपका सर्वज्ञ ज्ञान । धन्य है आपका अतिशय अरु धन्य है आपकी परम पवित्र बुद्धि । धन्य आपकी प्रवीणता अरु विचक्षनता सो आप दया बुद्धि कर सर्व ही वस्तुको भिन्न भिन्न बतावो हो । अरु आत्माका निज स्वरूप अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान अनन्त सुख अनन्तवीर्यका धनी आप साढस्य बताया अरु द्रव्यसों रागादिक भावको उपजावन बताओ । रागद्वेष मोह भावनकर कर्मनसू जीव बंधते आये । पीछे वा काल विर्षे जीव महा दुखी होते दिखाये। वीतरागता कर कर्मनसू निबंध निराश्रव होना दिखाया । वीतराग भावोंसू ही पूर्व संचित दीर्घकालके कर्म ताकी निर्जरा होजी बताई। निर्जराके कारन कर निज आत्माकी जाति केवलज्ञान केवल सुख प्रमट होना दिखाया।