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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आदि सीत विशेष परनेका स्थानक तिष्टे विषे, ग्रीष्मकाल विषे पर्वतके सिखिर, रेतके स्थान वा चोपट आदि मारग विर्षे तिष्टे । वरपाकाल विषे वृक्ष तले तिष्टे इत्यादि तीनों रितके उपाय कर मन भी कस्या जाय है । परन्तु किंचित् कसा कहा जाय है। मनके कसे विना तो तप नाम पावे नाहीं। अरु अभ्यंतर तप कर मन संपूर्ण कस्या जाय है। तातें बाह्य तप बीच अभ्यंतरके तपका फल विषेश कहा है। ऐसा अर्थ जानना। आगे छह प्रकारके अभ्यंतर तपका स्वरूप कहिये है। तिन विषं अप. नसू आखड़ी व्रत संयम वि भूलवाजान कर अल्प बहुत दोष लागे है। ताको श्री गुरू पास जी प्रकार मन वचन कर कृत
कारित अनुमोदना कर पाप लागा होय ताको ज्योंका त्यों गुराने . कहें है। अस मात्र भी दोष छिपावे नाहीं । पाछे श्री गुरुनो दंड
दें ताको अंगीकार कर फेरसू आखड़ी व्रत संनमादिकका छेद हुए स्थापन करें। ताको प्रायश्चित् तप कहिये । बहुरि श्री अरहंतदेव आदि पंच परमगुरु वा जिनवानी, जिन धर्म, जिन मंदिर, जिनविम्ब तिनका परम उत्कृष्ट विनय करे । वा मुनि अर्निका श्रावक श्राविका चतुर प्रकार संघ ताका विनय करें। वा दस प्रकार संघताया विनय करे । वा आपसूं गुना कर अधिक होय, अव्रत सम्यकदृष्टि आदि धर्मात्मा पुरुष होय ताका विनय करिये । ताको विनय तप कहिये । बहुरि आप सो गुनाकर अधिक होय ताको वैयाकृत तप करिये । वाकी पग चापी आदि चाकरी करिये आहार दीजिये। नाका उनके खेद होय ताको जीती प्रकार निवृत्य करिये। रोग होय तो ओषद दीजिये इत्यादि