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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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विषेश चाकरी करिये ताको वैयावृत तप कहिये । बहुरि वांचना | प्रक्षना, अनुपेक्षा, आमनाय, धर्मोपदेश | ये पांच प्रकार स्वाध्यायके भेद हैं । सो वांचना कहिये शास्त्रको वाच जाना, प्रक्षना कहिये प्रश्न करना, अनुपेक्षा कहिये काव्य श्लोक आदि जो पाठ ताका वारंवार कंठाय करनेके अर्थ घोखना । आम्नाय कहिये जी काल जोग स्वाध्याय होय । वा जो शास्त्रपाउ पहने जोग्य होय । तिनका तिन काल विर्षे अध्ययन करे । और धर्मोपदेश कहिये धर्मका उपदेश देना ऐसे पंच प्रकार स्वाध्याय करना ताको तप कहिये । बहुरि जब जीव वा प्रमान शरीरका त्याग करना, त्याग कहिये शरीरका ममत्व छोड़ना । बाहुबलि मुनकी सी नाई शरीर का कोई प्रकार शोक सर नाहीं करना । अंग उपंगको चलाचल अपनी इच्छा करना ताको विउत्सर्ग व उत्सर्ग तप कहिये | बहुरि एकाग्र चित्त निरोधोध्यान इसका अर्थ यह है । आरत रौद्र ध्यानको छोड़ धर्म ध्यान शुक्रोधायका करना ताको ध्यान तप कहिये । ऐसें बारा प्रकार स्वरूप जानना | आगे बरा प्रकार तप तिनका फल कहिये है । आगां अनसनादि चार प्रकारके तप कर यह जीव स्वर्ग विषे कल्पवासी देव पुनीत पावे है । थोड़ीसी भोग सामग्री मनुष्य पर्याय विषं छोड़सी ताको फल अनन्त पायो । सो असंख्यात कालपर्यंत निर्विघ्रपने रहसी । अरु महा सुन्दर शरीर अमृतके भोगकर ऋप्त असंख्यातका पर्यंत निरोग एकसा गुलाब के फूल साहस्य महा मनोज्ञ डहडात करत आयु पर्यंत निर्मै रहसी । ताकी महमा वचना अगोचर है कहां लो कहिये । आगे स्वर्गनके सुखका विशेष वर्णन करेंगे तहां ते