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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
करिये । अब स्तुति करनेका विधान कहिये । जैसे राजादिक बड़े महंत पुरुष निकट कोई दीन पुरुष अपने दुःखकी निर्वृति अर्थ जाय सन्मुख खड़ा होय मुख आगे भैट धर ऐसे वचनालाप करे। पहिले तो राजाकी बड़ाई करे पीछे निकट जाय है आपको दुःख होय तो के वार युक्तकर कहे। पीछे वाकी निर्वृतको वांक्षता संता ऐसे कहे । ये मेरे दुःखकी निवृति करो सो ही ये संसारी परम दुखित आत्मा दीन मोह कर पीड़ा हुवा श्रीनीके निकट जाय खड़ा होय भेट आगे धर पहले तो श्रीनीकी महमा वर्णन करे। गुनांवाद श्रीजीका मावे । पीछे आपको अनाद कालको मोहकर्म घोरान घोर निगोद नर्कादिकके दुःख देवे ताका निर्नय करे। पीछे वाकी निवृतिके अर्थ ये प्रार्थना करे । सो हे भगवान यह अण्टकर्म मेरी लार लागे है । मोको महा तीव्र वेदना उपनावे है। मेरा स्वभावको घात मेली है । ताके दुःखकी बातमें कालों कहूं सो अब ऐसे दुःखनका निपान करिये। अरु मोकों निर्मोह स्थान मोक्ष ताको दीजिये । सो मैं चिरकाल पर्यंत सुखी हूं। पीछे भमवानका प्रताप कर यह जीव सहजा ही सुखी होय है । अरु मोहकर्म सहज ही गले है । अबै याका विशेष वर्नन करिये है। जय जय त्वं च जय त्वं च जय जय भगवान जय प्रभूजय नाथमय करुनानिधि जय त्रिलोकनाथ जय संसारसमुद्रतारक जय भोगसूं परान्मुख जय वीतसग जय देव जय साचा देव जय सत्यवादी जय अनोपम जय बाधा रहित जय सर्वत्र प्रकाशिक केवल ज्ञान मूरत जय त्रिलोकित्रलोक जय सांत मूरत जय अविनासी जय निरंजन जय निराकार जय निर्लोभ जय अतुल महमा भंडार जय