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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान अनंत वीर्य अनंत सुखकर मंडित संसार सिरोमणि गनधरदेवा कर वासौ जातके इन्द्रांकरि पूज्य तुम जय वंत प्रवर्ती तुम्हारी जय होय तुम बड़ा वृद्धि होहु जय परमेश्वर जय पर्म ईश्वर जय जय अनंदपुंज मय अनंदमूर्ति जय कल्यान पुंज जय संसार समुद्रके पारगामी जय भव जलद जिहाज जय मुकति कामनी कंत जय केवल ज्ञान केवल दर्शन लोचन परम पुरुष परमात्मा जय अवनाशी जय टंकोतकीर्ण जय विस्वरूप जय विस्वत्यागी विस्व ज्ञायक जय ज्ञान कर लोकालोक प्रमान वा तीन काल प्रमान अनन्त गुण खान जय चोसट रिद्धि भंडार अनन्त गुनके ईश्वर जय सुख सरोवर मान जय संपूर्न सुखकर ति सर्व दोष दुखकर रहित जय अज्ञान तिमिरके विध्वंसक जय मिथ्या वज्रके फोड़नेको चकचूर करनेको परम वज्र जय त्वंग शीस जय त्वंग ज्ञानानंद वरसाने भव तापको दूरवाने वा भव्य जीव खेती के पोषने या भव्य जीव खेतीके ज्ञानदर्सन सुख वीर्य आंगो पांग तीन लोकके अग्रभाग तिष्टे हैं । परन्तु तीन लोकने एक प्रमानके भाग मात्र खेद नाहीं उपजावें हैं । भगवानके उपगारने नाहीं भूलें हैं । तातें बुद्धिकर अल्प तिष्टे हैं । तव में भगवानके अनन्तवीर्य जाके भार मस्तग ऊपर कैसे धारोगे । याका भार मेरे बूते कैसे रहा जायगा भगवान अनन्त वली में असंख्यात वली असंख्तातवली ऊपर अनन्त वलीका भार कैसे ठहरे । तिन अगारू जाय भगवानकी सेवा कहिये तो भगवान परम दयाल हैं । सो मेरे ताई खेद न उपजायेंगे । सो अबै प्रत्यक्ष देखिये भगवान वृद्धि होनेको मेघ सादृश्य है । अहो भगावनजी
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