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-ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
सहस्र जिह्वां कर इन्द्रादिक देव क्यों नाहीं करें। अरु हजार नेत्र कर तुम्हारे स्वरूपका निरूपन क्यों नाहीं करें। अरु इन्द्रायाका समुह अनेक सरीर बनाई भक्त आन दरसकी भीगी क्यों नाहीं नृत्य करें । बहुरि केसो है तुम्हारा शरीर ता विषं एक हजार आठ लक्षने पाइये है। तिनका प्रतबिम्ब आकाश रूपी आरसी विर्षे मानू नाहीं परया है। सो तुमारे गुनोंका प्रतिबिम्ब तारेनके समूह प्रतभासे है । बहुरि हे जिनेन्द्र देव तुम्हारे चरनारबिंदके नखकी ललाई कैसी है मानू केवल ज्ञान दिसका उदय करवाने सूरज ही उहां. ऊगा है। वा भव्य जीवके वर्म काष्ट वाने तुमा नाग्निके तिन ज्ञान होय आन नाहीं प्राप्त भया वा मंगल वृक्ष तिनके कूपल ही नाहीं है। वा तप रूपी गन ताके मस्तगका तिलक ही नाहीं हैं । अथवा चिन्ता मन रत्न कल्पवृक्ष चित्रामवेल कामधेन रसकूप पारस वा इन्द्र धर्नेन्द्र नारायण बलभद्र तीर्थकर चतुर प्रकारके देव राजाने समूह यह समस्त उल्लष्ट पदार्थ अरु मोक्ष देनेका एक भानन परम उत्कृष्ट निधान ही है । भावार्थ । सर्वोत्कृष्ट वस्तुकी प्राप्ति तुमारे चरनाके आराध्याये मिलै है । तातै तुमारे चरन ही उत्कृष्ट निध हैं । बहुरि भगवानजी तेरा हृदय विस्तीरन कैसे सोभे है मान् लोकालोकके पदार्थ ही अभ्यंतर समाय गये हैं। बातें विस्तीर्न है । अरु तुमारी नासका ऐसी सोभे है मानू मोक्ष चढ़नेकी नसेनी है । अरु तुमारा मुख ऐसा सोहे है मानू गुलाबका फूल ही विगस्या है अरु तुमारे नेत्र ऐसे सोभे हैं मानू रक्त कमल विकसायमान है । अरु तुम्हारे नेत्रामें ऐसा